
- November 22, 2025
- आब-ओ-हवा
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याद बाक़ी...संस्मरण (कुछ वर्ष पहले लिखित) रामप्रकाश त्रिपाठी की कलम से....
लाल बिंदी वाली इरफ़ाना
शब्दशिल्पियों के आसपास में नेहा शरद की फ़ेसबुक पढ़ी। अतीत की स्मृतियां वातचक्र की तरह घुमड़ने लगीं। नेहा तब गोद में थी और अक्सर मेरी पत्नी रमा के साथ घर आ जाती। तब इरफ़ाना जी दोपहर में घर नहीं रहती थीं। वे शिक्षिका थीं और पूरी ज़िम्मेदारी से अपना दायित्व निभाती थीं। नेहा से बड़ी ऋचा स्कूल और बानी कॉलेज जाती। झूलाघर का चलन तब नहीं था। कम अज़ कम साउथ टीटी नगर (भोपाल) और माता मंदिर वाले इलाक़े में तो क़तई नहीं। शरद जी को नेहा की देखभाल करनी होती थी।
मेरा बड़ा पुत्र डॉक्टर अपूर्व त्रिपाठी तब होने को था। हमारे घर में भी कोई अनुभवी व्यक्ति नहीं रह रहा था। लिहाज़ा रमा की पूरी देखभाल का ज़िम्मा इरफ़ाना जी ने ले लिया। अस्पताल, दवा, खानपान सब उनके निर्देशन में होता। ज़ाहिर है ऐसे में आत्मीयता तो बढ़नी ही थी। पत्नी के कारण रमा का शरद जी के घर आना-जाना शुरू हो गया। उनके क्वार्टर 30/1 टीटी नगर, जो अब नहीं है क्योंकि विकास की भेंट चढ़ गया है, में एक शानदार जामुन का पेड़ था। जुलाई में जामुन आते और अगस्त तक चलते। पत्नी दोपहर में वहां जा धमकती और बरामदे की मुंड़ेर पर लेखनरत शरद जी से एक ही शब्द बोलती, जामुन। शरद जी लिखना छोड़ जामुन तोड़ते, रमा को देते। उनका दूसरा सवाल होता, नेहा। शरद जी कहते, सो रही है। वे उसके पास जाकर जामुन खातीं और नेहा को जगाकर अपने घर ले आतीं।
हमारा क्वार्टर बहुत छोटा और तिमंज़ले पर था। नेहा को वहां से एरियल व्यू देखना बहुत भाता। अपराह्न चार बजे जब इरफ़ाना जी या बानी घर लौटतीं, तभी नेहा भी अपने घर भेजी जाती। ऐसा अक्सर होता।
इस बीच जब पत्नी के दिन और चढ़े तो हमारी मां विद्यावती देखभाल के लिए आ गयीं। इरफ़ाना जी उन्हें बहुत आदर देतीं। घर बुलातीं पर संकोची मां अक्सर टाल जातीं। इरफ़ाना जी जितनी अच्छी कहानीकार, जितनी अच्छी इंसान थीं, उनकी मेहमाननवाज़ी भी उसी स्तर की थी। ईद और दीपावली पूरे जोश और जुनून से मनती। इरफ़ाना जी ने दीपावली पर मां को गुजिया खाने की दावत दी। मां मना नहीं कर सकीं। शाम को मैं दफ़्तर से लौटा तो वे बोलीं, मुझे जोशी जी की बहू के पास ले चलो। भली मानस कित्ते दिन से बुला रही है… ज़ीने से नीचे उतरते हुए मैंने समझाया कि याद रखना वे मुसलमान हैं। मेरी मां गांव की और बेहद कर्मकांडी क़िस्म की थीं। बहरहाल मैं उन्हें लेकर शरद जी के यहां पहुंचा। गर्मजोशी से स्वागत के बाद उन्होंने नाश्ता पानी लगाया। मां से आग्रह किया तो उन्होंने बड़े प्रेम से सब खाया-पिया। ख़ुश-ख़ुश लौटीं। मेरे लिए जात-पात मानने वाली मां का यह आचरण आश्चर्य का विषय था।

मैंने उन्हें छेड़ते हुए कहा, क्यों धरम भ्रष्ट कर आयीं। इरफ़ाना जी के हाथ का पानी भी पिया और माल भी जीम लिया। मां सहज रूप से बोलीं, लल्ला क्या करते, बिन के माथे पर सबेरे के सूरज जैसी लाल बिंदी नईं देखी! कित्ती भली इंसान हैं बे, मैं कैसे मना करती…
हमारे घर में इरफ़ाना जी का बिंदी पुराण काफ़ी दिनों चला। शरद जी और इरफ़ाना जी ख़ूब मज़े लिये। नेहा के ब्लॉग का हेडिंग था, बड़ी बिंदी वाली मेरी मां इरफ़ाना शरद सिद्दीक़ी। नेहा ने यह भी लिखा कि हमेशा वह पूरे उत्साह से साड़ी, बिंदी, सिंगार करती रहीं। दरअसल वे बहुत सुरुचिसंपन्न विदुषी थीं। शाजापुर के हक़ीम साहब का ख़ानदान भी बहुत क़रीने वाला था। इरफ़ाना जी के चेहरे की आभा और ताप कुछ ऐसा था कि आप मोहविष्ट हुए बिना नहीं रह सकते थे। पढ़े-लिखे आदमी का जो ऑरा होता है, वह इरफ़ाना जी के इर्द-गिर्द ज़रूर था। भले ही वह दिखती न हों, प्रदर्शनप्रियता उनके स्वभाव में नहीं थी। अलबत्ता रंगमंच पर उनका प्रदर्शन बहुत भावपूर्ण और विश्वसनीय होता।
यों तो पाककला में उनको महारत थी लेकिन जैसा चिकन-मटन वे बनाती थीं, वह लाजवाब होता। कई बार जहांगीराबाद के मटन मार्केट में मैं उनके साथ गया। वे बहुत वक़्त लगाती थीं, बहुत छांट-बीन करती थीं। पसंद आने पर भाव-ताव नहीं करती थीं इसलिए सभी दुकान उन्हें अपनी ओर आकर्षित करने की कोशिश करते। एक बार मैंने इरफ़ाना जी से कहा कि भोपाल के मुसलमानों को क्या हुआ है! वे सब्ज़ी डालकर मटन बनाते हैं! उन्होंने तीव्र प्रतिवाद किया और सब्ज़ी और मटन की युति और उसके लाभ पर मेरी पूरी क्लास ले डाली। एक दिन उन्होंने सब्ज़ी वाला मटन खिलाया तो मेरे पास उंगलियां चाटने के अलावा चारा नहीं बचा था।
भोपाल में एक अहद होटल हुआ करता था, जिसके मैनेजर ताज भोपाली थे। इरफ़ाना जी उनके यहां की प्रिपरेशन को मदीना होटल से बढ़कर मानती थीं। शरद जी को साथ वे वहां जातीं और ताज साहब पेमेंट नहीं करने देते। शरद जी तो ताज साहब के क़रीबी थे। वे उन्हें जानते थे इसलिए वे भुगतान की ज़िद नहीं करते थे। लेकिन इरफ़ाना जी को यह अच्छा नहीं लगता था। एक दिन शरद दंपत्ति वहां से गुज़रे तो इरफ़ाना जी ने अपना चेहरा साड़ी से ढांक लिया और शरद जोशी ने नयी ख़रीदी पत्रिका से मुंह की आड़ की। होटल में बैठे शरद के किसी नामी-गिरामी दादा ने यह सब देखा और ताज साहब से बोला, मियां शरद भाई और उनकी बेगम आपसे चेहरा छुपाकर जा रहे हैं। ताज साहब का हुक्म हुआ कि जाओ, उन्हें ले आओ। दादा-ए-आज़म ने वश भर उनसे अहद होटल चलने की रिक्वेस्ट की, मगर दादा की टोन में रिक्वेस्ट की नर्मी कहां से आती। इरफ़ाना जी ने नाराज़गी दिखायी तो शरद जी बोले, इरफ़ाना अब कुछ नहीं हो सकता। यह ताज की रियासत है, वहां चलना ही पड़ेगा। वहां पहुंचकर बहुरिया को ताज साहब की प्यार पगी शायराना झिड़कियां झेलनी पड़ीं। यह वाक़या मेरे भोपाल आने से पहले का है। अहद होटल मैंने नहीं देखा। उसके चर्चे सुने हैं। यह संस्मरण तो मैंने शरद जी और इरफ़ाना जी से अलग-अलग सुना है। इरफ़ाना जी बतरस पर उतरती थीं तो शरद जी को मात करती थीं। उनमें शाइस्तगी शरद जी के मुक़ाबले ज़्यादा थी।
नेहा ने शाजापुर से इरफ़ाना सिद्दीक़ी को लेकर आने का बहुत मुख़्तसर ज़िक्र किया है। शरद जी इसे बहुत विस्तार से एक जासूसी बयां के अंदाज़ में सुनाते थे। उस ज़माने में चीन के राष्ट्रपति माओ त्से तुंग की लाल किताब का बड़ा हल्ला था। लिहाज़ा लाल किताब को इरफ़ाना हरण का सेतु बनाया गया। दरअसल वह माओ वाली लाल किताब नहीं थी। लाल रैपर में मढ़ी परिक्रमा थी। वहां एक व्यक्ति गली के मोड़ पर लाल किताब लिये था, उसने इरफ़ाना जी को निर्दिष्ट दिशा का संकेत किया। अगली गली के कोने पर दूसरा व्यक्ति लाल किताब लिये खड़ा था, उसने आगे जाने का इशारा किया। इरफ़ाना जी आगे बढ़ीं, तो एक तांगे वाला लाल किताब लिये बैठा था, इरफ़ाना जी उसमें बैठ गयीं, तांगे वाले ने उस घर तक पहुंचाया। जिसका ज़िक्र नेहा ने किया है। मुझे लगता है कि इसमें माथुर साहब, जौहरी साहब ही नहीं और भी कई साहब थे। दिलचस्प यह है कि शरद जी, इरफ़ाना जी अपनी शादी को लव मैरिज के बजाय ज़िद मैरिज कहते थे। समाज की रूढ़ियों को तोड़ने की ज़िद। इस ज़िद को उन्होंने ताउम्र निभाया भी। वे सांप्रदायिक सद्भाव और एक्य के एंबेसेडर जैसे थे।
इरफ़ाना जी का लाल तिलकित भाल का रिश्ता उस लाल किताब से भी है। इसलिए मुझे लगा कि बड़ी बिंदी की लाली को भी लिखकर याद करना चाहिए। इरफ़ाना जी की स्मृति मेरे लिए अमिट है। शरद जी तो ख़ैर हमारे पथ प्रदर्शक थे ही।

रामप्रकाश त्रिपाठी
साहित्यकार, संस्कृतिसेवी और राजनीतिक एक्टिविस्ट के रूप में दशकों से पहचान। जनवादी लेखक संघ के मौजूदा राष्ट्रीय उपाध्यक्ष। तक़रीबन छह दशकों से लेखन, रंगमंच, विचारधारा आधारित एक्टिविज़्म में सक्रिय। मध्य प्रदेश हिंदी ग्रंथ अकादमी के पूर्व अधिकारी। अनेक सांस्कृतिक संस्थाओं के साथ संबद्धता। अनेक पत्र पत्रिकाओं में नियमित लेखन और इसके बावजूद कोई पुस्तक अब तक प्रकाशित नहीं।
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बहुत मनोहारी यादों की यात्रा।
पढ़कर ऐसा लगा जैसे सब कुछ अपने सामने घटित हो रहा हो. अपनी याद हमारे साथ साझा करने के लिए शुक्रिया. लाल किताब, लाल बिंदी और लालिमा भरा व्यक्तित्व सब एक साथ बाँध दिया आपके लेख ने.
आकांक्षा
बहुत सुंदर