jangbahadur shrivastav, bandhu, जंगबहादुर श्रीवास्तव, बंधु
पाक्षिक ब्लॉग भवेश दिलशाद की कलम से....

लोकतंत्र, सत्तानमाज़ी नागरिक और बंधु-गीतों की याद

           “एक आज के आगे-पीछे लगे हुए हैं दो-दो कल”… क्या ख़ूब मिसरा है! तंज़ का तंज़, दर्शन का दर्शन। जन्म-मरण, अतीत-भविष्य या फिर याद और ख़्वाब… यादों वाले कल में बहुत-सी आवाज़ें हैं। यह मिसरा जिस आवाज़ में मुझे याद रहा है, कहते हैं उसके कंठ से अब स्वर नहीं फूटा करेंगे। जंगबहादुर श्रीवास्तव जी उर्फ़ बंधु जी। उनके एक गीत का मुखड़ा मुझे कभी नहीं भूला:

कंठ लोटे का फंसा है एक लंबी डोर से
और सौ-सौ हाथ गहरा है कुआ
बंधु, फिर भी पूछते हो क्या हुआ!

जंगबहादुर जी जब कविता का पाठ करते थे, तो घर का कमरा हो या कोई सभागार, एक बुलंद आवाज़ से धड़कने लगता, बल्कि धड़धड़ाने लगता था। मुझे याद है, ‘बंधु फिर भी पूछते हो…’ जैसे उनका हस्ताक्षर गीत रहा, सास-बहू के पारंपरिक चरित्र-चित्रण वाला उनका गीत हर बैठक में सुना ही जाता था, पुरज़ोर मांग और भरपूर दाद के साथ। अलावा इनके, भोपाल में होने वाली गोष्ठियों में उनकी हर ताज़ा रचना के लिए एक जिज्ञासा, एक इंतज़ार हुआ करता था कि आज इस गीतकार के कंठकोष से क्या रसवर्षा होगी।

वह अपनी रचनाएं तक़रीबन बग़ैर देखे पढ़ा करते थे। नयी रचनाओं के लिए काग़ज़ रखा करते थे, पर कविताई की तरह उनके पाठ का प्रवाह भी कमाल का था। उस पर उनकी ठसक भरी कड़क आवाज़। माने कंठ तो उनका तीव्र मध्यम ही लगता था, ख़ास था उस कविताई का स्वर, तेवर और रंग जो पंचम में सुनायी देता था। उनके हाथों की मुद्राएं पंक्तियों के उतार-चढ़ाव को लय दिया करती थीं। मैंने उन्हें गुनगुनाते हुए कभी नहीं सुना इसलिए उन रचनाओं का पाठ उनकी अनूठी शैली में ही मेरे भीतर गूंजता है।

मुझे लगता रहा है तंज़िया शायरी, अवामी शायरी को गाये जाने की एक परंपरा विकसित होना चाहिए। शास्त्रीय हों, उप शास्त्रीय या सुगम संगीत वाले, गायक अभी पारंपरिक कंफ़र्ट ज़ोन में ही अपनी एक लय तलाश रहे हैं जबकि जनगीतों की ओर रुजहान किये जाने की ज़रूरत है। हमेशा रही है और इस समय तो ज़ियादा ही लगती है। यदि कलासंपन्न गायक इस दिशा में ध्यान लगाएं, कोशिश करें तो कोई नया रास्ता खुल सकता है। यदि ऐसी कोई राह बनी तो मेरा ख़याल है, ऐसे गीतों के लिए जंगबहादुर जी के पास गायकों को अच्छा-ख़ासा ख़ज़ाना मिल जाएगा।

किसी को चंद्रमा पूरा पुरस्कृत कर दिया तुमने
किसी की आंख में केवल अमावस की कहानी है
यह कैसी राजधानी है!

इन गीतों का रचयिता मन कैसा रहा होगा! मैं जंगबहादुर जी से मिलता रहा, उन्हें सुनता रहा किन्तु उन्हें जान पाया! व्यक्ति के रूप में बहुत समझ पाया, ऐसा दावा नहीं कर सकता। पापा द्वारा आयोजित काव्य गोष्ठियों, गीत उत्सवों में वह हमेशा आया करते थे। घर भी और सभागारों में भी। घर में व्यक्ति रूप में भी उनसे कुछ बात होती। सरल लगते थे। ऐसे, जैसे बस यही तो हैं। शक ही नहीं होता कि जो दिख रहे हैं, उसके अलावा कुछ और हो भी सकते हों। इसलिए भी उन्हें और ज़ियादा जानने की ज़रूरत नहीं महसूस हुई।

jangbahadur shrivastav, bandhu, जंगबहादुर श्रीवास्तव, बंधु

मयंक जी के साथ उनकी जोड़ी रहती। दोनों एक ही कॉलोनी के निवासी थे या शायद पड़ोसी इसलिए अक्सर साथ ही आते-जाते। मयंक जी सस्वर पाठ किया करते थे और वह भी अपने रंग के एक गीतकार हैं, जो परिचय और प्रतिष्ठा के मोहताज नहीं हैं। लेकिन मुझे लगता है जंगबहादुर जी को जो पहचान मिलना चाहिए थी, मिल सकती थी, वह न मिल सकी! वजह क्या रही, मैं कह नहीं सकता। संगत तो उनकी बुरी नहीं थी, उनके गीतों की सेहत भी माशाअल्लाह थी, शायद शारीरिक सेहत कोई कारण रहा हो। क्या पता किसी तरह का स्वाभिमान या फिर गुटबंदी से दूरी कोई कारण रहा हो।

मैं नीलकंठ का वंशज हूं
इनकार नहीं है पीने से
लेकिन मयंक के अधरों से कुछ ज़हर-बिंदु तो झरने दो

अब इन पंक्तियों से कुछ बातें करना चाहता हूं। एक याद तो यह है कि जब उन्होंने घर पर हुई गोष्ठी में ये पंक्तियां पढ़ी थीं, तब पूरी महफ़िल ने क़हक़हा लगाया था, दिवाकर जी ने मयंक जी को देखते हुए मज़े-मज़े का फ़िकरा कसा था, ‘भई, यह है मित्रता’! इस पर भी कुछ देर मज़ेदार वाक्यों का आदान-प्रदान होता रहा।

दूसरी इन पंक्तियों के काव्यात्मक कथ्य की। पापा (कमलकांत सक्सेना) के मिसरे याद रहते हैं, “जब चले निज पांव पर ही तो चले/कब चले दो चार कांधों पर कमल”। कविताई में एक परंपरा रही है कि शाइर आत्मकथात्मक तत्व अपने काव्य में संजोता है। यह समझना होता है कि कहां शाइर का आत्मकथ्य है और किन पंक्तियों में उसका मैं, व्यापक है अवामी है। नीलकंठ का वंशज होना वही कथ्य है, जो एक स्तर पर जीवन की डायरी में दर्ज होते घटनाक्रम का निचोड़ हो सकता है। कवि विष पीने से इनकार कर ही नहीं सकता। यह तो उसकी नियति है, उसका रसघट ही यही है। हमारे समय के कवि अखिलेश की काव्य पंक्तियां हैं, “मैं दुखभक्षक हूं, विषपायी हूं, मैं कवि हूं, मेरे रुधिर का रंग नीला है”।

जंगबहादुर जी का कवि क्या यहां पीड़ा का गौरवगान भर ही कर रहा है? इसके जवाब में मुझे फिर ‘यह कैसी राजधानी है?’ गीत दिखता है। इस गीत में आगे पंक्तियां हैं:

सड़क शालीन है लेकिन यहां के पांव पाजी हैं
हक़ीक़त है यहां के नागरिक सत्तानमाज़ी हैं

मेरे अपने बयानिया मिसरे हैं, “कौन अब गाये बजाये राग देस/राग दरबारी सुने जाने लगे”… यानी एक पूरे युगबोध की पीड़ा जंगबहादुर जी अपने अंदाज़ में बयान कर रहे हैं। ऐलान कर रहे हैं कि वह सत्तासुख भोगने के बजाय जनपीड़ा को गाएंगे। यह संकल्प इसीलिए ही तो होता है कि कवि के पास ख़्वाब होता है, एक बेहतर दुनिया के लिए उसका दिल मचलता है और कराहता है। ‘यहां के नागरिक सत्तानमाज़ी हैं’, यह गीत मैंने उनके स्वर में तक़रीबन डेढ़ दशक पहले सुना है और आज के हालात देखता हूं तो यह पंक्ति कितनी सटीक दिखती है। प्रैस का, न्यायपालिका का या अन्य संवैधानिक संस्थाओं का पतन दिखा रहे इस समय की सबसे बड़ी त्रासदी यही है कि नागरिक चरित्र लुप्तप्राय है। जब नागरिक ही सत्तानमाज़ी हो जाये तब काहे का लोकतंत्र, काहे का संविधान और काहे की संवैधानिक संस्थाएं!

हाल ही संविधान दिवस पर हमने अनेक सिरों से विचार ​विमर्श किया। दिल्ली में हुई एक परिचर्चा में योगेंद्र यादव ने कहा, भारत में अब जो तंत्र है, उसे लोकतंत्र कहना मुश्किल है। इसे एक प्रतिस्पर्धी अधिनायकवाद जैसी कोई व्यवस्था कहना ठीक हो सकता है। इसी चर्चा में गौहर रज़ा का मत था, एक ही समय में हर भारतीय या हर व्यक्ति के भीतर तार्किकता और अतार्किकता मौजूद होती है। यही जटिल चरित्र है, जिसे आप डुअल पर्सनैलिटी डिसॉर्डर भी समझ सकते हैं। मैं उनके इस वाक्य में यह ध्वनि सुन पाया कि हमारे भीतर लोकतंत्र और तानाशाही जैसी प्रवृत्तियां साथ-साथ मौजूद रहती हैं। हम एक असमंजस से ही चरित्र गढ़ पाते हैं। इन शब्दों के बीच एकदम-से मुझे महसूस होता है यह बात बरसों पहले गीतकार की एक पंक्ति में गूंज रही है, ‘नागरिक सत्तानमाज़ी हैं’!

एक नहीं ऐसी कई पंक्तियां जंगबहादुर जी बहुत सहज प्रवाह में दे गये हैं। सबसे ऊपर जो पंक्तियां मैंने कोट की थीं, उन्हें फिर देखिए। सौ-सौ हाथ गहरे कुएं जैसे अंधकार का अहसास कराते इस समय में जिस लोटे का कंठ फंसा हुआ है, उसमें जल है, जो प्यास बुझा सकता है, उसी का कंठ गहरे, अंधेरे कुएं में फंसकर रह गया है। फिर वही, इन बरसों पहले की पंक्तियों में आज के समय की विडंबनाओं का ताप महसूसा जा सकता है:

क्यों करे रक्षा अमावस चांदनी के सांस की
चील के घर सौंपना, वह भी धरोहर मांस की
धन्य है आकाश की रक्षा व्यवस्था, देखिए
आंख की इस किरकिरी को आप भी उल्लेखिए
चांद को जिस राह से होकर गुज़रना है, सुनो
राहु को रक्खा गया है उस डगर का पहरुआ
बंधु, फिर भी पूछते हो क्या हुआ!

यह अंतिम वाक्य कविताई में जबरन की टेक नहीं है। यह एक पूरे अनुभव से पका हुआ वह मर्मांतक कटाक्ष है, जो पढ़ने वाले को टीसता है। सरसरी तौर से गुज़र नहीं जाता। उनके एक दोहे की पंक्ति याद आ रही है, “जैसे भूपति भवन में भूसे का भंडार”… हर समय के काव्य परिदृश्य में संख्या और प्रतिष्ठा के लिहाज़ से इस पंक्ति को देख रहा हूं। कितनी ही कविताएं भूसे का भंडार ही बढ़ाती हैं और कुछ प्रतिष्ठा ऐसी पाती हैं कि राजा के भवन में यह भूसा रखा जाता है। जंगबहादुर जी की आवाज़ ऐसे भूसे से बहुत दूर मिलती है। रिश्तों-नातों को उन्होंंने जिस तरह गीतों की ताल पर उघाड़ा है, समाज से लेकर सियासत की शाहराहों के गड्ढों को जिस तरह उन्होंने ताल ठोककर लताड़ा है… वह सब गूंजता रहता है, गूंजता रहेगा। मैं बोलना चाहता हूं यह सरसरी तौर से गुज़र जाने वाली आवाज़ नहीं है। यह मेरे साथ रहती है, कहीं गहरे तक।

संबंधित लिंक-यहां गीत पढ़िए:
इंद्रधनुष-4 : जंगबहादुर श्रीवास्तव ‘बंधु’

भोपाल ही क्या पूरा कविकुल उन्हें याद रखे, उनकी कविताई को इज़्ज़त बख़्शे, उनके शब्द ताप को महसूसता रहे… बस, काश! ऐसा हो।

भवेश दिलशाद, bhavesh dilshaad

भवेश दिलशाद

क़ुदरत से शायर और पेशे से पत्रकार। ग़ज़ल रंग सीरीज़ में तीन संग्रह 'सियाह', 'नील' और 'सुर्ख़' प्रकाशित। रचनात्मक लेखन, संपादन, अनुवाद... में विशेष दक्षता। साहित्य की चार काव्य पुस्तकों का संपादन। पूर्व शौक़िया रंगमंच कलाकार। साहित्य एवं फ़िल्म समालोचना भी एक आयाम। वस्तुत: लेखन और कला की दुनिया का बाशिंदा। अपनी इस दुनिया के मार्फ़त एक और दुनिया को बेहतर करने के लिए बेचैन।

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *