
- December 3, 2025
- आब-ओ-हवा
- 5
संस्मरण ख़ुदेजा ख़ान की कलम से....
मोमो
कभी-कभी जीवन में अचानक कोई इस तरह दाख़िल हो जाता है कि उसकी उपस्थिति की आदत हो जाती है। कमबख़्त था भी तो बहुत प्यारा। झक्क सफ़ेद रंग, बड़ी-बड़ी काली आंखें और चेहरे की मासूमियत मन मोह लेती थी। क़द-काठी भी एकदम आकर्षक। जब उससे अच्छे से दोस्ती हो गयी तो अक्सर वह मेरे साथ ही रहने लगा। मेरे स्टडी रूम में कुर्सी के पास चारों खाने चित सोता, एकदम निश्चिंत होकर। ऐसा तभी होता है, जब कोई अपने आप को पूरी तरह सुरक्षित महसूस करे।
था तो पालतू लेकिन हरकतें बिल्कुल इंसानों की तरह, जैसे सब समझ में आता हो। उसके चेहरे पर हर भाव को पढ़ा जा सकता था कि वह कब ख़ुश है, कब अनमना और कब मूड अच्छा नहीं है। उसकी आंखों की पुतलियां कभी फैलकर और कभी सिकुड़कर मनोभावों को प्रदर्शित कर देती थीं।
बात 12 नवंबर 2022 की है। जब हमारे दूध वाले भैया ने एक तरह से रेस्क्यू करके एक पर्शियन कैट लाकर मुझे दी। यह बताना ज़रूरी है कि लोग शौक़-शौक़ में पशु-पक्षी पाल तो लेते हैं लेकिन उनकी सही तरीक़े से देखभाल नहीं कर पाते। रिसर्च बताती है कि बिल्लियों को वह सभी बीमारियां होती हैं जो मनुष्यों में होती है। वह भी मेंटल ट्रॉमा से गुज़रती हैं, उन्हें डिप्रेशन होता है। और वह अत्यधिक संवेदनशील होती हैं। अन्य पालतुओं के लिए भी इस तरह की बातें हैं लेकिन मेरी जानकारी में बिल्लियों के संदर्भ में ऐसे अनेक केसों का पता लग चुका है और शोधों से ये बातें साबित हो चुकी हैं।
ख़ैर, पता चला इसका नाम “मिली” है। देखने में इतनी सुंदर कि मेरे भाई ने उसका नाम “मोनालिसा” रख दिया। मिली से वह मोनालिसा बन गयी, लेकिन उसकी सेहत कुछ ठीक नहीं थी। मुलायम फ़र जैसे झबरे बाल उलझकर जगह-जगह से सख़्त गुच्छों में बदल गये थे। उनमें पिस्सू हो गये थे। इससे वह खुजली से परेशान रहती। पिस्सू की दवाई लाकर मेरी बेटी जब उसके पूरे बदन पर मल रही थी तभी वह चौंकी- “मम्मा यह मोनालिसा नहीं मोहनलाल है”…
“हैंssss”… अब हैरान होने की बारी मेरी थी।
हुआ यह कि जिस घर में पहले से यह बिल्ली थी, वह तो इसे मां बनाने पर तुले थे और अपने ही घर के दूसरे बड़े परशियन बिल्ले के पास इसे छोड़ देते। जो इसकी दुर्गति बनाता था क्योंकि यह भी तो बिल्ला ही था। सुनने में बड़ी अजीब बात लगती है लेकिन सच यही है कि उसके पुराने केयरटेकर उसी श्रेणी के थे, जिन्हें पॅट्स केयर का अर्थ भी शायद ठीक से नहीं पता होता। तीन साल तक प्रताड़ित होता रहा बेचारा, इसीलिए जब मेरे पास आया तो एकदम डरा-सहमा हुआ। सिंड्रेला की कहानी याद आ गयी, जो अपने ही घर में सौतेली मां द्वारा प्रताड़ित की जाती थी। इसका अब तक का जीवन उत्पीड़न में बीता था। बहुत ग़ुस्सा आया उन लोगों पर, जिन्हें यह तक नहीं मालूम कि उनकी बिल्ली नर है या मादा।

ख़ैर अब वह मेरी छत्रछाया में था बल्कि साया बनकर मेरे पीछे-पीछे रहता। कभी डांटना भी पड़ता कि अपनी जगह पर जाकर बैठो, किसी दिन पैरों में दबकर कुचल जाओगे। बात समझता भी और मानता भी। चुपचाप अपनी जगह पर चला जाता। फिर मैं ही काम ख़त्म करने के बाद उसके पास जाती। छूने से घुर्र-घुर्र की आवाज़ निकालता, ख़ुश होने पर बिल्लियां ऐसे ही आवाज़ निकालती हैं। उसके शरीर का हल्का कंपन महसूस किया जा सकता था।
ऐसे तो चुप ही रहता, मुंह से आवाज़ नहीं निकलती लेकिन जैसे ही मेरा बेटा मुझसे कुछ बात करने मेरे पास आता, फ़ौरन हम दोनों के बीच आकर म्याऊं-म्याऊं शुरू कर देता, अटेंशन लेने के लिए।
अगर बहुत देर तक अपना कुछ लिख-पढ़ रही हूं और उसकी तरफ़ ध्यान नहीं दिया तो अपने दो नन्हें पैरों पर खड़ा होकर अगले पंजे से मुझे छूकर अपनी तरफ़ ध्यान खींचता था। उस वक़्त वो सर्कस में काम करने वाला छोटा बौना लगता। तब उसके साथ मैं थोड़ी बातचीत करती और वो अपना खेल दिखाता। इसके लिए वो कार्पेट पर गुलाटी खाकर दिखाता। सर नीचा करके पलटता और चारों खाने चित होकर लेट जाता, जैसे छोटा शिशु और फिर छोटे-छोटे खर्राटे लेकर सो जाता।
जब पता चला कि यह तो न मिली है, न मोनालिसा तब मेरी बड़ी बेटी ने उसका नाम “मोमो” रख दिया। “मोमो” यह नाम शायद उसे भी पसंद आया। वह अपना नाम पहचानने लगा था, छत पर धूप सेकने जाता लेकिन मोमो आवाज़ देने पर नीचे आ जाता था।
ईद का दिन था 31 मार्च 2025। मेहमानों की आवाजाही लगी हुई थी। रात 10:30 बजे तक गेट खुला था। मोमो कब बाहर निकल गया पता ही नहीं चला। आवारा कुत्तों के किसी झुंड ने उसे दबोच लिया था। हम उसका ख़याल रखने में कोई कसर नहीं छोड़ते थे लेकिन एक दिन, एक लमहे की गफ़लत जीवन भर का अफ़सोस बनकर रह गयी। कुत्तों से जैसे-तैसे छुड़ाकर उसका इलाज तो करवाया, लेकिन उसे बचा नहीं सके। घर के पास ही मेरे बेटे ने उसकी छोटी-सी क़ब्र बनायी। बेटे के ग़मज़दा आंसू टप-टप उसके ऊपर ख़ामोशी से गिर रहे थे। दोनों हाथों से मिट्टी डालता जाता, दुख की बूंदें अब मिट्टी में समा रही थीं। हम सब उसे आख़िरी विदाई देने के लिए नि:शब्द खड़े थे। आंखें अपने आप बह रही थीं, जिनमें उसका जीवंत चेहरा झिलमिला रहा था।
“सिर्फ़ सवा दो साल तुम मेरे पास रहे। मैंने कोशिश की कि अपने जीवन में इससे पहले तुमने जो दुख और पीड़ा झेली थी, उससे तुम्हें पूरी तरह उबार सकूं। पापी दुनिया से तुम्हें मुक्ति मिल गयी। मैं तुम्हें भूल नहीं सकती, मेरे लिए तुम तब तक जीवित हो जब तक मेरी सांसे चल रही हैं।”

ख़ुदेजा ख़ान
हिंदी-उर्दू की कवयित्री, समीक्षक और एकाधिक पुस्तकों की संपादक। अब तक पांच पुस्तकें अपने नाम कर चुकीं ख़ुदेजा साहित्यिक व सामाजिक संस्थाओं से सम्बद्ध हैं और समकालीन चिंताओं पर लेखन हेतु प्रतिबद्ध भी। एक त्रैमासिक पत्रिका 'वनप्रिया' की और कुछ साहित्यिक पुस्तकों सह संपादक भी रही हैं।
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आभार प्रेषित करती हूं
सतत सृजनशील रहने की शुभकामना के साथ।
मार्मिक
सच में भावुक करने वाली घटना। प्रेम और विरह का संगम। आने की जितनी खुशी, अचानक जाने का उतना ही गम।
आया कुछ इस अदा से कि बहार उतर आई
गया वो शख़्स सारे घर को वीरान कर गया
ईश्वर मोमो की आत्मा को शांति प्रदान करे।
Beautifully told and truly memorable…
बहुत प्यारा लिखा।