जयप्रकाश मानस, jaiprakash maanas
कवियों की भाव-संपदा,​ विचार-वीथिका और संवेदन-विश्व को खंगालती इस डायरी का मक़सद प्रकाशन पूर्व पाठक-लेखक संवाद बनाना है...
जयप्रकाश मानस की कलम से....

पूर्वपाठ — एक कवि की डायरी : भाग-15

            मनुष्य का श्रेष्ठ कार्य
            26 अप्रैल, 2014

आदरणीया डॉ. रंजना अरगड़े जी का लेखन मुझे सदैव लुभाता रहा है। विशेषकर उनके निबंध। वे मेरी दृष्टि में हमारे समकालीन दौर की एक बड़ी निबंध लेखिका हैं। उनके एक अप्रकाशित निबंध (यक्ष रक्ष नाग देव-हेल द्वीप, सिंहली: एक अट्टकथा) का ड्राफ्ट आज पढ़ रहा था तो ये पंक्तियाँ मुझे भीतर तक प्रभावित कर गयीं:

‘मनुष्य के रूप में अगर कोई श्रेष्ठ कार्य है, तो वह ज्ञान का निर्माण करना ही है। (सच्ची और उच्च कोटि की रचनाशीलता भी ज्ञान का ही अंग है। रचनाशीलता अर्थात् ज्ञान की रचनात्मक अभिव्यक्ति, प्रस्तुति।)’

फ़ेसबुक पर एक कविता पढ़कर
एक नवागत कवि के पूछने पर एक अप्रिय परामर्श- दरअसल आपकी कविता को आप (कवि), आलोचक, समीक्षक, प्रकाशक, संपादक, संगठन, पुस्तकालय, अध्यापक मिलकर भी नहीं बचा पाते जितना उसे आपके पाठक बचा ले जाते हैं। अपने पाठक के मन की चिंता करें! ख़ुद में शऊर पैदा करें! नाहक़ इधर-उधर ना भटके!

‘काली हल्दी’ से वार्तालाप
कुछ ही देर पहले मुझे एक अज्ञात मोबाइल से कॉल आया। मैं कंपनी का कॉल समझकर झट से रिसीव नहीं कर रहा था। मेरे मोबाइल सेट में Truecaller की सुविधा होने के कारण धीरे से सामने वाले का नाम उभरने लगा- ‘काली हल्दी’! अरे ये कौन है भई! सोचा- जानकर तो देखें।

वाह, ये जनाब मध्यप्रदेश के सज्जन हैं। मूल नाम कुछ और है पर उनके मोबाइल को ट्रूकॉलर ‘काली हल्दी’ के नाम से ही जानता है। ‘काली हल्दी’ के बारे में भले ही हममें से कई कुछ ख़ास नहीं जानते पर यह एक दिव्य वनस्पति है। दुर्लभ भी। एक बड़ी औषधि। जो भी हो, एक सच तो यह भी कि हम भारतीय प्रकृति के बड़े पुजारी हैं। और इस पूजा का बड़ा प्रतिफल है। ‘काली हल्दी’ को मेरा प्रणाम!

काली हल्दी यानी डॉ. विजय चैरसिया यानी देश के जाने-माने लोक-विशेषज्ञ हैं। गाड़ासरई जिला-डिण्डौरी मध्यप्रदेश के निवासी। भारत सरकार, संस्कृति विभाग के दक्षिण मध्य क्षेत्र सांस्कृतिक केंद्र नागपुर में लोक नृत्यों के मनोनीत गुरु। अब तक देश व विदेश में 30 लोक नाट्य एवं लोक नर्तक दलों का नेतृत्व कर चुके हैं।

हम तीनों में मर गया कौन?

फ़ेसबुक की एक टिप्पणी के अनुसार देश के तीन रचनाकारों- हरीश नवल, गिरीश पंकज और जयप्रकाश मानस में से कोई एक नहीं रहा। मुझे पता चला कि दिल्ली के भाई लालित्य ललित के एक पोस्ट पर उनके फ़ेसबुकियायी मित्र सर्जना शर्मा ने हम तीनों में से किसी को अंतिम श्रद्धांजलि दे दी है। भगवान उसका भला करे। पर तीनों के तीनों शायद फ़िलहाल दिवंगत नहीं हुए हैं। दिल्ली की मोहतरमा सर्जना जी को आप भी देख लें जो कितनी जागरूक हैं। तुर्रा यह भी कि ये मीडिया को अपना व्यवसाय बता रहीं।

जो लोग मनुष्य को समझते हैं

मेरे एक मित्र हैं, डॉक्टर। बीमारियों को ठीक करते हैं, लेकिन मन को भी समझते हैं। कविता लिखते हैं, जैसे कोई हल्का-सा बादल कागज़ पर बरस जाये। रंगों से खेलते हैं, कैनवास पर चित्र बनाते हैं, जैसे कोई सपना कहीं उतर आया हो। कलाकार हैं, पर दुनिया का हिसाब भी रखते हैं। नफ़ा-नुक़सान की गिनती उनकी जेब में सिक्कों-सी खनकती रहती है।

वे मुझसे अक्सर कहते हैं, “अरे, तुम तो हर किसी को प्रणाम ठोक देते हो! बिना सोचे-समझे? बिना यह देखे कि सामने वाला छोटा है या बड़ा? अमाँ, ऐसा भी कोई करता है?” उनकी बात में एक ठहराव होता है, जैसे कोई पुरानी किताब का पन्ना पलट रहा हो। मैं हँसता हूँ, फिर धीरे से कहता हूँ, “इसमें बुरा क्या है? जो लोग मनुष्य को समझते हैं, वे तो मुझे पहले ही सम्मान दे देते हैं। उनकी आँखों में एक चमक होती है, जैसे कोई नदी किनारे की मिट्टी को छू ले। और जो मनुष्य को कुछ भी नहीं समझते, जिनके लिए आदमी बस एक साया है, उन्हें मैं पहले से सम्मान दे देता हूँ। यह मेरा तरीक़ा है। जैसे कोई ख़ाली गागर में पहले पानी भर दे, शायद उसकी प्यास जाग जाये।”

वह सुनकर मुस्कुराते हैं, लेकिन कुछ कहते नहीं। शायद सोचते हैं कि यह मेरी बात नहीं, मेरे भीतर का कोई पेड़ बोल रहा है, जिसकी जड़ें कहीं गहरे तक चली गयी हैं। मैं भी चुप रहता हूँ। बाहर सड़क पर लोग आते-जाते हैं। सबके अपने-अपने मनुष्य हैं, अपने-अपने सम्मान। और मैं सोचता हूँ, यह दुनिया कितनी सादी है, बस थोड़ा-सा झुकना आना चाहिए।

27 अप्रैल, 2014
फ़र्क़

बंदर नाचना जानता है, नचाना नहीं और मदारी नचाना जानता है, नाचना नहीं।

संपादकी का हक़ तो अदा कीजिए हुज़ूर

फ़ेसबुक में कभी-कभी बड़ी अच्छी रचनाएँ और प्रसंग भी पढ़ने को मिल जाते हैं। मऊ के विवेक के. गुप्ता जी की वॉल से ऐसी ही एक रोचक बात- वे लिखते हैं: मशहूर कवि दुष्यंत कुमार की धर्मयुग के संपादक को लिखी ये कविता आज की परिस्थिति में भी कितनी प्रासंगिक है… दुष्यंत कुमार जी की लेखनी को शत-शत प्रणाम, दुष्यंत जी के सहारे ही कम से कम पसीजिए तो हुज़ूर..

पत्थर नहीं हैं आप तो पसीजिए हुज़ूर
संपादकी का हक़ तो अदा कीजिए हुज़ूर
अब ज़िंदगी के साथ ज़माना बदल गया
पारिश्रमिक भी थोड़ा बदल दीजिए हुज़ूर
कल मयक़दे में चेक दिखाया था आपका
वे हँस के बोले इससे ज़हर पीजिए हुज़ूर
शायर को सौ रुपए तो मिलें जब ग़ज़ल छपे
हम ज़िन्दा रहें ऐसी जुगत कीजिए हुज़ूर
लो हक़ की बात की तो उखड़ने लगे हैं आप
शी! होंठ सिल के बैठ गए, लीजिए हुज़ूर

29 अप्रैल 2014
कल से भोपाल में

तीन दिन। भोपाल में तीन दिन। न कोई बोलना। न कोई सुनना। न कोई सभा। न कोई आसंदी। न कोई कविता। न कोई शब्द जो ऊँचा उठे। न कोई बारात। न कोई घरात। बस एक उपस्थिति। हल्की-सी। ग़रीब-सी। जैसे कोई पत्ता जो पेड़ से गिरा हो, पर हवा में अटका हो।

कहाँ रहना है? किस ठौर? कोई नहीं पूछता। मैं भी नहीं पूछता। पूछना क्या है? पूछना जैसे कोई काम हो। काम क्या है? काम जैसे कोई गाना हो। गाना क्या है? गाना जो नहीं गाया। गाना जो सिर्फ़ मन में बजा। भोपाल में तीन दिन। तीन दिन जैसे तीन पत्ते। एक पेड़ से। एक हवा से। एक ज़मीन से।

कोई नहीं पूछता। मैं किससे कहूँ? मैं क्यों कहूँ? कोई मेला नहीं। कोई मीनाबाज़ार नहीं। कोई सर्चिंग लाइट नहीं। बस मैं हूँ। मैं और भोपाल। भोपाल और मैं। संगत कैसी? संगत जैसे कोई नदी। नदी बहती है। मैं बहता हूँ। बहना जैसे कोई काम हो। काम जैसे कोई नदी हो।

कोई नहीं पूछता। दाना क्या? खाना क्या? गाना क्या? मैं भी नहीं पूछता। पूछना छूट गया। पूछना जैसे कोई पुराना दोस्त। दोस्त जो मिला नहीं। दोस्त जो सिर्फ़ याद रहा। भोपाल में तीन दिन। तीन दिन जैसे तीन यादें। एक याद नदी की धारा है। धारा में झूला है। झूला जैसे कोई बात। बात जो कही नहीं। बात जो सिर्फ़ सोची। मैं धारा को छू लूँ। मैं झूले में झूल लूँ। झूलना जैसे कोई काम हो। काम जैसे कोई नदी हो। नदी जैसे कोई मैं हो।

कोई नहीं पूछता। मैं भी नहीं पूछता। नाम क्या है? नाम जैसे कोई शून्य। शून्य जैसे कोई मैं। मैं जैसे कोई सर्वनाम। सर्वनाम जैसे कोई हवा। हवा जो बही। हवा जो रुकी। हवा जो भोपाल में तीन दिन रही।

तीन दिन। भोपाल में। बस इतना। बस इतना-सा। जैसे कोई पत्ता। पत्ता जो गिरा। पत्ता जो उड़ा। पत्ता जो भोपाल में रहा।

झक मारन को तीस

किताब है। किताब का नाम क़िस्सा कोताह। राजेश जोशी की किताब। किताब जैसे कोई खज़ाना। खज़ाना जैसे कोई गाना। गाना जो पढ़ते ही मन में बजा। पढ़ना जैसे कोई काम। काम जैसे कोई हवा। हवा जो भोपाल में बही। भोपाल में 1 जून, 1949 को।

भोपाल उस दिन कुछ और था। भोपाल उस दिन भारत का हिस्सा था। हिस्सा जैसे कोई पत्ता। पत्ता जो पेड़ से जुड़ा। पेड़ जैसे भोपाल। भोपाल जो राजधानी बना। राजधानी जैसे कोई बात। बात जो मौलाना आज़ाद ने कही। बात जो नेताओं ने सुनी। शंकरदयाल शर्मा आए। पहले मुख्यमंत्री। मुख्यमंत्री जैसे कोई नाम। नाम जो भोपाल में गूँजा।

पाँच मंत्री। पाँच जैसे पाँच पत्ते। पच्चीस विधायक। पच्चीस जैसे पच्चीस टहनियाँ। टहनियाँ जो फट्टन पर बैठीं। फट्टन जैसे टाटपट्टी। टाटपट्टी जैसे कोई ज़मीन। ज़मीन पर पच्चीस। कुर्सी पर पाँच। कुर्सी जैसे कोई आसमान। आसमान में एक कमिश्नर। कमिश्नर जैसे कोई सूरज। सूरज जो राज करता है।

खुशाल कीर का दोहा है। दोहा जैसे कोई गप्पी। गप्पी जैसे कोई किस्सा। किस्सा जो हँसाता है। किस्सा जो मन में बसता है। दोहा कहता है- पाँच पंच कुर्सी पर। पच्चीस फट्टन पर। एक कमिश्नर राज करन को। तीस झक मारन को। झक जैसे कोई हवा। हवा जो हँसी। हवा जो उड़ी।

किताब पढ़ना जैसे भोपाल में चलना। दिन जो इतिहास बना। इतिहास जैसे कोई किताब। किताब जैसे क़िस्सा कोताह। किताब जो पढ़ी। किताब जो मन में रही।

4 मई, 2014
भोपाल में नोटों की माला!

भोपाल का बाज़ार। बाज़ार में माला। माला, जो अब फूलों की नहीं। फूल तो कबके कुम्हला गये। फूलों की माला, देखो, पच्चीस रुपये की, पचास रुपये की। चंद घंटों में बासी। थोड़ी देर में बेकार। बेचो तो कोई अठन्नी भी न दे। फूलों की सुगंध? अरे, वह तो अब देवताओं को भी नहीं भाती। देवता भी बदल गये। पृथ्वी के देवता। अब नोट चाहिए। नोटों की माला।

भोपाल में देखा। बाज़ार में दुकानें। नयी-नयी दुकानें। चमचमाती। हर दुकान में नोटों की माला। दस रुपये की। सौ रुपये की। हज़ार रुपये की। जितना मोल, उतनी माला। चुन लो। जो चाहिए, ले लो। नोटों की माला लटकाओ, देखो, पत्थर का देवता भी पिघल जाये। पिघल न जाये तो नोटों का नाम बदल देना।

फूल? फूल तो बेकार। फूल तो निरर्थक। फूल की माला बनाओ, वह सूख जाएगी। नोट की माला बनाओ, वह चमकेगी। बाज़ार में नोट बिकता है। नोट से माला बनती है। माला से देवता खुश होते हैं। देवता से दुनिया चलती है। भोपाल का बाज़ार यही सिखाता है। नोट बिकाऊ है। सब बिकाऊ है।

हमने देखा। भोपाल में। माला बिकती है। नोट बिकते हैं। देवता बिकते हैं। बाज़ार में सब कुछ बिकता है। बस, फूल नहीं बिकता। फूल कुम्हलाता है। फूल की सुगंध हवा में उड़ती है। लेकिन नोट? नोट की गंध में बाज़ार डूबा है।

6 मई, 2014
पहचान

मैं सभी चीज़ें देखना चाहता हूँ
मैं सभी चीज़ें छूना चाहता हूँ
मैं सभी चीज़े सूँघना चाहता हूँ
मैं सभी चीज़ें सुनना चाहता हूँ
मैं सभी चीज़ें कहना चाहता हूँ
किसलिए इसलिए कि
सभी चीज़ों के बीच पहचान सकूँ
ख़ुद को अलग से मैं

भटककर
मंटो को पढ़ते हुए: “अगर तुम चाहो भी तो भटककर ज़्यादा दूर नहीं जा सकते।”

7 मई, 2014
मेंढ़क की आवाज़, अक्कित्तम का स्वर्ग

भोपाल का कोना। कोने में किताब। किताब में अक्कित्तम। मलयालम का महाकवि। कवि, जिसे मैंने नहीं पढ़ा। नहीं पढ़ा, तो क्या? उमेश चौहान आये। अनुवाद लाये। प्रतिनिधि कविताएँ। 2009 की किताब। मेरे हाथ न लगी। मेरी कमज़ोरी। कमज़ोरी, जो बाज़ार में नहीं बिकती।

उमेश चौहान फिर आये। किताब लाये। साहित्य, समाज और संस्कृति। 2014। इलाहाबाद से। पचास रुपये। पचास रुपये में अक्कित्तम। अक्कित्तम, जो पृथ्वी को स्वर्ग बनाना चाहते हैं। कवि, जो मनुष्य को देखता है। मनुष्य, जो प्रकृति से कट गया। कट गया, तो क्या? अक्कित्तम पूछते हैं। पूछते हैं मेंढ़कों से। मेंढ़कों की आवाज़ से।

मेंढ़क बोलते हैं। बोलते हैं, हम अभिनय नहीं करते। हम भाषाएँ नहीं बेचते। छापकर नहीं बेचते। राशन नहीं खाते, तो क्या? क्या हम सृष्टि का हिस्सा नहीं? सृष्टि, जो ब्रह्मा ने बनायी। सृष्टि, जो पृथ्वी है। पृथ्वी, जहाँ मेंढ़क हैं। पृथ्वी, जहाँ बाज़ार है। बाज़ार, जहाँ सब बिकता है।

मेंढ़क पूछते हैं। तीखे सवाल। मनु-पुत्रों को हक़ किसने दिया? हमें मारने का हक़? एकजुट होकर हमें कुचलने का हक़? मेंढ़क चुप नहीं। बोलते हैं, हमें भी शक्ति मिलेगी। मारने की शक्ति। बचने की शक्ति। पृथ्वी बचाने की शक्ति।

अक्कित्तम देखते हैं। देखते हैं, मनुष्य को। मनुष्य, जो आधुनिक है। आधुनिक, जो घातक है। पातक है। अक्कित्तम कहते हैं, मनुष्य अकेला नहीं। मनुष्य के साथ मेंढ़क है। पेड़ है। नदी है। पृथ्वी है। पृथ्वी, जो जैव विविधता है। विविधता, जो बचे। बचे, तो स्वर्ग बने।

उमेश चौहान लिखते हैं। लिखते हैं, अक्कित्तम को। एक आलेख में। आलेख, जो छोटा है। छोटा, पर गहरा। गहरा, जैसे मेंढ़क की आवाज़। आवाज़, जो भोपाल में गूँजी। भोपाल, जहाँ मैंने किताब पढ़ी। किताब, जो अक्कित्तम थी। अक्कित्तम, जो पृथ्वी थी। वे मानवेतर जीव मेंढ़कों के मुँह से सवाल उछालते हैं:

अभिनय नहीं करते
भाषाओं को छापकर नहीं बेचते हम
राशन नहीं खाते तो क्या ब्रह्मा की सृष्टि नहीं हैं हम?
…. किसने दिये हैं हाथ मनु-पुत्रों को
हमें मारने के लिए एकजुट होने पर
हमें भी उनको मारने की शक्ति मिल सकती है शायद

मन : एक पतंग
कटकर भी उड़ता रहता है जाने किससे जुड़ता रहता है जाने क्या थहता रहता है!

27 मई 2014
नदी है तो

नदी केवल धोती है। नदी केवल बोती है। नदी केवल खोती है। नदी केवल रोती है। नदी केवल सोती नहीं! नदी और नींद का मेल कहाँ! नींद एक नदी है पर नदी कोई नींद नहीं। नदी सदा जागती है। वह सदा जगाती है। जगना उसका धर्म है। जगाना उसका कर्म। नदी की नीयत में दो ही बातें हैं- कर्म और धर्म। जो उसका कर्म है वही उसका धर्म। नदी का यही सच्चा मर्म।

नदी एक ताल है। छंद गति लय भी। सच कहो तो नदी जैसे जीवन का संगीत। जीवन कभी भी थमता कहाँ! बिन गाये नदी का मन भी रमता कहाँ! न थमना, केवल रमना ही नदी का जीवन है। बहते ही रहना, कुछ कहते रहना ही जीवन की नदी है।

दो तटों को मिलाना। फिर स्वयं खिलखिलाना। पास-पड़ौस को बुलाना। कानों में बुदबुदाना। फिर मेले सजाना। नदी की ही रीति। नदी की ही नीति। नदी कभी अपना रीत नहीं छोड़ती। नदी भूले से भी प्रीत नहीं तोड़ती। जोड़ती-जोड़ती सिर्फ़-सिर्फ़ जोड़ती।

नदी है तो जागती रहती हैं मछलियाँ। नदी है तो मल्लाह की रोती नहीं पुतलियाँ। नदी है तो चमकती रहती है डोंगियाँ।

क्रमश:

जयप्रकाश मानस, jaiprakash maanas

जयप्रकाश मानस

छत्तीसगढ़ शासन में वरिष्ठ अधिकारी जयप्रकाश मानस की कविताओं, निबंधों की दर्जन भर से अधिक पुस्तकें प्रकाशित हैं। आपने आधा दर्जन से अधिक साहित्यिक पुस्तकों का संपादन किया है और आपकी कविताओं का अनेक भाषाओं में अनुवाद हो चुका है। यही नहीं, पाठ्यक्रमों में भी आपकी रचनाएं शामिल हैं और अनेक प्रतिष्ठित सम्मानों से आपको और आपकी पुस्तकों को नवाज़ा जा चुका है।

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