
- August 23, 2025
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कवियों की भाव-संपदा, विचार-वीथिका और संवेदन-विश्व को खंगालती इस डायरी का मक़सद प्रकाशन पूर्व पाठक-लेखक संवाद बनाना है...
जयप्रकाश मानस की कलम से....
पूर्वपाठ — एक कवि की डायरी : भाग-17
ये मेरी नौकरी है
4 जून, 2014
नागपुर की सुबह हरी-भरी है, जैसे कोई पेड़ मेरे भीतर उग आया हो। मित्रों से मिलना पहले से तय था, पर मिलना ऐसा जैसे झरने के पास बैठ गया हूँ। पानी की आवाज़, हँसी की आवाज़, सब एक हो गया। डॉ.प्रमोद शर्मा, राजेन्द्र सिंह, कृष्ण नागपाल, डॉ. पाटिल, पुष्पेन्द्र फाल्गुन—सबके चेहरे स्कूल के दोस्तों जैसे लगे। हम बातें करते रहे और मैं सोचता रहा, मिलना तो जैसे फिर से कक्षा में लौट जाना है, जहाँ किताबें खुलती हैं और मन भी।
ताज बाबा के दरबार में पहुँचा तो मन गुनगुनाने लगा। कोई शे’र याद आया— “करता हूँ मैं गुलामी, ये मेरी नौकरी है।” किसका है, नहीं जानता, पर सूफ़ी की हवा में मन ख़ुद-ब-ख़ुद गाता है। वैभव धूल सा लगता है, और मन कहता है, गुलामी करनी ही है, तो किसी संत की क्यों नहीं? ताज बाबा, 1861 में जन्मे, इस धरती को आशीर्वाद देते हैं। मैं उनके सामने खड़ा हूँ, और मेरे भीतर की धूल हल्की हो रही है।
दीक्षाभूमि पर धूप चिलचिलाती है, पर मैं गौतम बुद्ध के प्रकाश में भीग रहा हूँ। लुम्बिनी का राजकुमार याद आता है, जो जन्म-मरण के सवाल लेकर वन में चला गया। फिर बाबा साहब दिखते हैं, 1956 की 14 अक्टूबर को, जब 3,80,000 लोग बौद्ध धर्म की दीक्षा ले रहे थे। और अचानक, मैं 200 साल पीछे चला जाता हूँ। अनुराधापुरम से लाया गया बोधिवृक्ष यहाँ रोपा जा रहा है। मैं खड़ा हूँ, चुप। हरियाली बाहर फैली है और मेरे भीतर भी पत्तियाँ उग रही हैं।
नागपुर, अलविदा। तुम्हारी छाँव मेरे साथ चलेगी, जैसे कोई पेड़ मेरे कंधे पर रखा हो।
5 जून, 2014
गरजत गनमन घटा घोर
आज फिर गाड़ासरई से विजय जी की बातें मन में बसी हैं। बादल गरजते हैं, कहीं दूर, काले-काले, जैसे कोई पुराना गीत गुनगुना रहा हो। बैगा लोगों की बातें, उनके गीत, उनके दिन-रात, सब कुछ जैसे मेरे पास बैठकर धीमे-धीमे कहानी कह रहे हैं। विजय जी ने करमा गीत की बात की। गीत नहीं, मानो सूखी धरती का आलाप हो:
गरजत गनमन घटा घोर
भँवर नागर नौ मोर
कोठी में अन्न नाहीं
कोठा में धान
पैरा में उनकत है चोर
भँवर नागर नौ मोर
आठ-काठ नौ फुंज के डोर
राजा के बेटा गाँव गइस
कौन कुदाही चोर
भँवर नागर नौ मोर
बादल गरजते हैं, घुमड़ते हैं, पर कोठी ख़ाली है। एक दाना नहीं। कोठार में धान नहीं, बीज नहीं। हल की रस्सी मज़बूत है, लंबी है, पर खेत जोतने को क्या बचा? राजा का बेटा गाँव गया है, और चोर? चोर तो खेतों में, मन में, समय में घूमता है। बरसात आ गयी, पर बिना अन्न, बिना बीज, खेती कैसे होगी? गीत सुनकर मन जैसे सूखे कुएँ का पानी हो गया— थोड़ा-थोड़ा, गहरे में कहीं, हिलोर लेता हुआ।
बैगा लोग गाते हैं, और उनका गाना पेड़ों की पत्तियों में, नदी की लहरों में, हवा के झोंकों में उलझ जाता है। अकाल उनके गीतों में बसता है, जैसे कोई पुराना मेहमान, जो हर तीसरे-चौथे साल लौट आता है। मैं सोचता हूँ, यह गीत कब सुना जाएगा? यह आलाप कब धरती के कानों तक जाएगा? उनके खेत ख़ाली हैं, कोठी ख़ाली है, पर मन में एक उम्मीद का बीज कहीं बचा है।
मैं बैठा हूँ, और बाहर बादल फिर गरज रहे हैं। गीत मेरे पास नहीं आता, मैं ही गीत के पास चला जाता हूँ।
तुलसीदास की भूमिका!
कभी रामविलास शर्मा जी समक्ष बैठे प्रकाश मनु को यह संस्मरण सुना रहे थे– आज प्रकाश मनु जी दूर बैठे मुझे-
“उन दिनों निराला जी का महत्वपूर्ण प्रबंध-काव्य ‘तुलसीदास’ छप रहा था। प्रकाशक का विचार था कि इस किताब पर किसी न किसी प्रतिष्ठित लेखक का नाम भूमिका के साथ ज़रूर दिया जाना चाहिए। वैसे उन दिनों मैं (रामविलास शर्मा) विद्यार्थी था पर प्रकाशक ने मुझसे आग्रह किया कि मैं ही भूमिका लिख दूँ!
मैंने निराला जी की किताब पर भूमिका लिख दी जो राय कृष्णदास के नाम से छपी। बहुत दिनों बाद मुझे राय कृष्णदास के पास जाना हुआ। उन्होंने बातचीत के दरमियान बड़े गर्व के साथ मुझे बताया- जानते हैं शर्मा जी, मैंने कितने मेहनत से ‘तुलसीदास’ की भूमिका लिखी है, पढ़ी की नहीं आपने!”
लिखने के बाद
“कुछ भी लिखने के बाद मैं हमेशा उसे दो बार पढ़ता हूँ। जहाँ कोई अंश मेरे कानों को अखरता है, वहाँ कुछ शब्द जोड़ या घटा देता हूँ ताकि वह पठनीय बन सके। अपने दिमाग़ से उत्पन्न ऐसी वाक्य-रचना जो सिर्फ़ मैं या ख़ुद मैं भी नहीं समझ सकूँ; मैंने कभी-कभार इस्तेमाल किया है।” -लू शुन
7 जून, 2014
सुख-दुःख
गाय और गोबर से सर्वथा अपरिचित का नाक-मुँह सिकोड़कर कंडे थापना है दुःख। जिसकी आँच पर पकी मलाई उसे सबसे अधिक पसंद।
ख़ाली बैठे मन में उपरोक्त पंक्तियाँ बरबस आयीं तो मन उसी रमने लगा- गाय का गोबर, धरती का गीला स्पर्श, और खेतों की सोंधी महक— ये सब जैसे किसी के लिए अनजाना देश है, जहाँ वह भटकता है, नाक सिकोड़ता है, मुँह बनाता है। कंडे थापना, गोबर को हथेलियों में गूँथना, उसे आकार देना— यह सब उसके लिए दुख है, जैसे कोई बोझ जो उसने नहीं चुना। लेकिन वही कंडा, जब चूल्हे में जलता है, और उसकी आँच पर मिट्टी के हाँडी में दूध उबलता है, मलाई की परत बाँधता है, तो वही अनजाना आदमी सबसे आगे खड़ा है। मलाई का स्वाद उसे सबसे प्रिय। वह भूल जाता है कि यह मलाई उसी गोबर से उपजी है, उसी कंडे की आँच से पकी है, जिसे वह छूना नहीं चाहता।
गाँव की मिट्टी में कुछ ऐसा है, जो सबको अपने में समेट लेती है। गाय सुबह-सुबह रँभाती है, जैसे कोई गीत गुनगुनाती हो। उसका गोबर धरती पर गिरता है, और धरती उसे अपने में मिला लेती है। गोबर कोई गंदगी नहीं, वह तो खेतों की साँस है। खेत उससे हरे होते हैं, धान की बालियाँ लहलहाती हैं। कंडा बनाना जैसे धरती से बात करना है। हथेलियाँ गोबर को थपथपाती हैं, और धूप उसे सुखाती है। फिर चूल्हे में आग, और आग में वह कंडा, जो रोटी पकाता है, दाल उबालता है, मलाई बनाता है। यह सब एक ही साँस में चलता है, जैसे गाँव की नदी बहती है— बिना रुके, बिना शिकायत।
जो गोबर से मुँह मोड़ता है, वह मलाई का हक़दार कैसे? पर गाँव उदार है। वह सबको खिलाता है, बिना हिसाब। जो कंडे थापता है, वह जानता है कि गोबर में धरती की आत्मा बसती है। और जो मलाई खाता है, वह शायद एक दिन समझेगा कि सुख और दुख एक ही मिट्टी से बने हैं। गाय खड़ी है, पूँछ हिलाती है। धरती उसकी प्रतीक्षा करती है। और चूल्हे की आग, वह तो बस जलती रहती है, सबके लिए।
सोना लेखा बीसोए – रूपा लेखे ओंदरकी
अपने माता-पिता का घर-बार छोड़कर जाना भला किस लड़की को अच्छा लगता होगा। कदाचित् इसीलिए वह सदा अपने आपको अल्पायु ही बताती है जिससे उसके माता-पिता और भाई उसका विवाह शीघ्र न कर दें। और शायद इसलिए भी कि वह अपने घर में अधिक दिन रह सके। यह आज की पीड़ा नहीं। कदाचित् मनुष्य जीवन में विवाह के शुरू होने से ही हो। इस पीड़ा को शायद ही कोई पुरुष समझ पाता।
छोटा नागपुर की प्रमुख आदिवासी उराँव कन्या कहती क्या रही है सदियों से! हज़ार हज़ार वर्षों से! यही ना :
(बड़े भैया मैं बहुत छोटी हूँ। जीरा अजवायन के समान। यदि मेरी शादी करेंगे तो मुझे सोना के समान शादी कीजिएगा। फिर रूपा के समान लेने आइएगा)
माँ-बाप का घर, आँगन, नीम की छाँव छोड़कर कौन लड़की खुशी से विदा होना चाहेगी? उसका मन तो बस इतना चाहता है कि वह छोटी रहे, हमेशा छोटी, जैसे जीरा-अजवाइन का दाना, हल्का, हवा में ठहरा हुआ। वह कहती है, भैया, मैं अभी बहुत छोटी हूँ, मेरी उमर मत गिनो, मेरे हाथों की रेखाओं में वक़्त मत ढूँढो। मुझे यहीं रहने दो, जहाँ नदी मेरा नाम जानती है, जहाँ इमली के पेड़ की जड़ों में मेरे राज़ दबे हैं।
छोटे कुना रअदन दादा
जोरा जावानी लेखे रअदन
सोना लेखा बीसोए दादा
रूपा लेखे ओन्दरकी बारोए
छोटा नागपुर की उराँव कन्या सदियों से यही गीत गाती आ रही है। उसकी आवाज़ पहाड़ों से उठती है, चूल्हे की राख में सुलगती है। वह गाती है, नहीं बग़ावत में, बल्कि वक़्त को थामने की कोशिश में। अगर मुझे ब्याहना ही है, तो सोने-सा ब्याहो, अनमोल, वैसा जो अपनी चमक न खोये। और जब लेने आओ, तो चाँदी-सा आना, चाँद की ठंडी रोशनी लिये, न कि सूरज की जलती आँखों के साथ।
उसके बोल सिर्फ़ उसके नहीं। हर उस लड़की का दर्द है जो देहरी पर खड़ी हुई, पायल की झनकार में सवाल लिये। पुरुष क्या जाने यह बोझ, यह जड़ों का उखड़ना? वह प्रेम या दहेज की बात नहीं करती, वह माँगती है वक़्त—बेटी बने रहने का, उस रास्ते पर दौड़ने का जहाँ माँ की हँसी अब भी गूँजती है। गाँव सुनता है, हवा उसका गीत ले जाती है, पर दुनिया घूमती है, और डोली इंतज़ार करती है।
वह छोटी-सी है, पर उसमें सागर समाया है। उसके बोल में हज़ार सालों की अनकही विदाइयाँ। वह बीज है जो टिकना चाहता है, नदी है जो समंदर से डरती है। फिर भी, वह जानती है— सोना हो या चाँदी, सफ़र शुरू होगा। पर अभी, उसे जीरा रहने दो, अजवाइन रहने दो, वह लड़की जो अभी अपनी है।
क्रमश:

जयप्रकाश मानस
छत्तीसगढ़ शासन में वरिष्ठ अधिकारी जयप्रकाश मानस की कविताओं, निबंधों की दर्जन भर से अधिक पुस्तकें प्रकाशित हैं। आपने आधा दर्जन से अधिक साहित्यिक पुस्तकों का संपादन किया है और आपकी कविताओं का अनेक भाषाओं में अनुवाद हो चुका है। यही नहीं, पाठ्यक्रमों में भी आपकी रचनाएं शामिल हैं और अनेक प्रतिष्ठित सम्मानों से आपको और आपकी पुस्तकों को नवाज़ा जा चुका है।
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