
- October 30, 2025
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पाक्षिक ब्लॉग डॉ. आज़म की कलम से....
आज भी मिसाल है यह 200 साल पुरानी किताब
सैयद इंशा अल्लाह ख़ान “इंशा” और मिर्ज़ा मुहम्मद हसन “क़तील” के नाम से मन्सूब ग्रंथ ‘दरिया-ए-लताफ़त’ पहली बार फ़ारसी में 1808 में लिखा गया था। यह उर्दू का पहला व्याकरण ग्रंथ है, जिसके दो भाग हैं। पहले भाग में उर्दू भाषा के विभिन्न स्वरूपों और नियमों की व्याख्या की गयी है, दूसरे भाग में उर्दू भाषा के विभिन्न स्वरूपों और नियमों, तुकबंदी, तर्कशास्त्र, अर्थविज्ञान, कथनविज्ञान आदि का उल्लेख है। इसका संकलन मिर्ज़ा मुहम्मद हसन “क़तील” ने किया है। लेखन शैली सुरुचिपूर्ण होने से यह पाठकों के लिए जटिल विषय को रोचक बना देती है।
इस किताब में अरबी अफ़ाईल/तफ़ाईल के पदभारों को समान रखते हुए उन्हें उर्दू नाम देने का सचेत प्रयास किया गया है ताकि भारतीय लोगों को अरबी शब्दों की कठिनाइयों से मुक्ति मिल सके। उदाहरण के लिए अरूज़ (अरबी छन्दशास्त्र) के “मुफ़ाईलुन/1222” को “परी ख़ानम/1222” और “मफ़ऊल/221” को “बी जान/221” आदि के रूप में पहचानने का प्रयास किया गया है, क्योंकि हम जानते हैं कि अरबी में ये केवल भार की दृष्टि से बनाये गये हैं और उनका अपना कोई शाब्दिक अर्थ नहीं होता। वे बस बांट बटखरे का काम करते हैं। इसलिए इसके स्थान पर हम ऐसा नाम दे सकते हैं, जो भारतीय लोगों के लिए याद रखने में आसान हो। जैसे अगर सब्ज़ी वालों के पास कोई निर्धारित बाँट न हो, तो वे उसी भार के पत्थर को बाँट बना लेते हैं। अब चाहे वह विशिष्ट बाँट से तौलें या उस पत्थर से, वज़न एक ही होगा। इस प्रकार हम देखते हैं अरबी उच्चारण को बदलने का पहला प्रयास इसी पुस्तक में दिखायी देता है। इसे उर्दू व्याकरण की पहली पुस्तक माना जाता है।

1808 में संकलित यह पुस्तक पहली बार 1849 में प्रकाशित हुई थी। इसका फ़ारसी से उर्दू में अनुवाद पंडित बृजमोहन दत्तात्रेय “कैफ़ी” ने किया था। 1916 में, यानी लगभग एक सौ आठ साल बाद, इसे लखनऊ से मौलवी अब्दुल हक़ ने उर्दू में प्रकाशित किया। मौलवी अब्दुल हक़ अपनी प्रस्तावना में लिखते हैं:
“सैयद इंशा अल्लाह ख़ान इंशा की सबसे यादगार और मूल्यवान कृति दरिया-ए-लताफ़त है, जिसमें उर्दू वाक्यविन्यास और व्याकरण, तर्क, उच्चारण, तुक, अर्थ और व्याख्या आदि का उल्लेख है। यह एक अद्भुत, व्यापक और अद्वितीय पुस्तक है। उर्दू भाषा के नियमों, मुहावरों और रोज़मर्रा के जीवन पर इससे पहले ऐसी कोई प्रामाणिक और शोधपूर्ण पुस्तक नहीं लिखी गयी है। यह उन लोगों के लिए अवश्य पढ़ने योग्य है जो उर्दू भाषा का विस्तार से अध्ययन करना चाहते हैं या इसके व्याकरण, वाक्यविन्यास या शब्दकोश पर शोध कार्य संकलित करना चाहते हैं।”
इंशा अल्लाह खां ‘इंशा’ ने यह किताब नवाब सआदत अली ख़ां के कहने पर 1807 में फ़ारसी में लिखी थी। इसका एक भाग “क़तील” ने लिखा है, लेकिन कुछ शोधकर्ताओं का मानना है कि यह भाग भी “इंशा” ने ही लिखा है क्योंकि दोनों भागों की शैली लगभग एक जैसी है। इस किताब में कई ऐसे विचार हैं जो आज भी लोग मिसाल के तौर पर प्रयोग करते हैं। सबसे प्रसिद्ध विचार है-
“हर लफ़्ज़ जो उर्दू में मशहूर हो गया, अरबी हो या फ़ारसी, तुर्की हो या सिरयानी, पंजाबी हो या पूर्वी अपने मूल के अनुसार ग़लत हो या सही, अब वह लफ़्ज़ उर्दू का लफ्ज़ है। अगर मूल के अनुसार प्रयोगरत है तो भी सही है और मूल से हटकर प्रयोग में है, तो भी सही है। इसकी शुद्धता या अशुद्धता उर्दू के प्रयोग पर निर्भर है क्योंकि जो कुछ उर्दू के स्वभाव के विपरीत है, ग़लत है चाहे वह अपने मूल में सही हो। और जो कुछ उर्दू के अनुसार है, सही है चाहे वह अपने मूल अनुसार शुद्धता न रखता हो।”
एक नज़र में इंशा अल्लाह खां ‘इंशा’
जन्म दिसंबर 1752 मुर्शिदाबाद – मृत्यु 19 मई 1817 लखनऊ। इंशा अल्लाह खां बहुत बुद्धिमान और नवीन विचारों वाले व्यक्ति थे। उन्होंने कई अनूठी रचनाएँ कीं। इस तरह उन्होंने साहित्य के इतिहास में अपने लिए एक महत्वपूर्ण स्थान बनाया। उन्होंने ग़ज़ल, रेख़्ती, क़सीदा और मसनवी लिखीं, उन्होंने बिना नुक़्ता दीवान (जिसमें बिना नुक़्ते वाले शब्द हों) और ‘रानी केतकी की कहानी’ भी लिखी, जिसमें अरबी या फ़ारसी का एक भी शब्द नहीं है। और इस तरह उर्दू को स्वयं में एक आज़ाद ज़बान साबित करने में सफल हुए, जो इस विचार को रद्द करता है कि उर्दू खड़ी बोली में अरबी और फ़ारसी के शब्दों को शामिल कर के बनायी गयी भाषा है।
वह बहुत संवेदनशील और हाज़िरजवाब थे, जिसके कारण वे नवाब सआदत अली खान के प्रिय थे। मगर इससे अक्सर दूसरों शायरों से तकरार भी हो जाया करती थी। उन्होंने अपनी ग़ज़लों में हास्य भी जोड़ना शुरू किया और अपनी शायरी में लखनऊ ही नहीं, बल्कि दिल्ली की भाषा का भी स्वाद क़ायम रखा है। उनकी मज़ाक़ करने की आदत ने ही नवाब को उनका दुश्मन बना दिया और उनके आख़िरी दिन बहुत ख़राब हाल में गुज़रे।
एक नज़र में मिर्ज़ा मुहम्मद हसन “क़तील”
जन्म 1758 या 1759 दिल्ली – मृत्यु 1817 लखनऊ। वह एक खत्री सिख परिवार से थे। युवावस्था में ही उन्होंने इस्लाम धर्म अपना लिया और अपना नाम दीवानी सिंह से बदलकर मुहम्मद हसन रख लिया। वह भारत के एक प्रमुख और लोकप्रिय फ़ारसी विद्वान थे। उनकी कविताओं के अलावा और भी कई किताबें हैं जैसे हफ़्त तमाशा, नहरुल फ़साहत, चहार शरबत, दरिया-ए-लताफ़ात, दीवाने-ग़ज़लियात, तरकीब बंद, तरजी बंद, मर्सिया, मुखम्मस, रुबाइयात वग़ैरह और मसनवी। “ग़ालिब” की “क़तील” से भी तकरार हुई थी, जो उर्दू साहित्य के इतिहास का हिस्सा है।

डॉक्टर मो. आज़म
बीयूएमएस में गोल्ड मेडलिस्ट, एम.ए. (उर्दू) के बाद से ही शासकीय सेवा में। चिकित्सकीय विभाग में सेवा के साथ ही अदबी सफ़र भी लगातार जारी रहा। ग़ज़ल संग्रह, उपन्यास व चिकित्सकी पद्धतियों पर किताबों के साथ ही ग़ज़ल के छन्द शास्त्र पर महत्पपूर्ण किताबें और रेख्ता से अंतरराष्ट्रीय स्तर पर ग़ज़ल विधा का शिक्षण। दो किताबों का संपादन भी। मध्यप्रदेश उर्दू अकादमी सहित अनेक प्रतिष्ठित संस्थाओं से सम्मानित, पुरस्कृत। आकाशवाणी, दूरदर्शन से अनेक बार प्रसारित और अनेक मुशायरों व साहित्य मंचों पर शिरकत।
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