
- September 30, 2025
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नियमित ब्लॉग राजा अवस्थी की कलम से....
नवगीत क्या है?
कविता ने अब तक ज्ञात-अज्ञात कई-कई रूप धरे हैं। सृजनधर्मियों ने कविता में शब्द, शिल्प, लय, छंद और कविता की भाषा को लेकर अनेकानेक प्रयोग किये हैं। ये प्रयोग जितने ज्ञात हैं, उससे भी अधिक अज्ञात। समय, समय की स्थितियाँ, समय की आवश्यकता और इन सबको अनुभव करने की सामर्थ्य रखने वाला कलाकार-साहित्यिक मन, जो इन सबके लोक पर, लोक के भीतर और बाहर पड़ रहे प्रभाव व लोक-संवेदना की अभिव्यक्ति की आकुलता से भरा मन जब भी बोला, तो उसने कथ्य के अनुरूप कविता को नये शिल्प में ढाल दिया। ऐसा एक बार नहीं, अनेक बार और लगातार होता रहा है। हिंदी कविता में विद्यापति से जिस गीत का आरंभ हुआ, वह निराला तक आकर और निराला में ही नवगीत की ओर उन्मुख हो गया।
नवगीत, काव्य की ऐसी विलक्षण विधा के रूप में स्वयं को प्रमाणित कर रहा है, जहाँ पारंपरिक छंद ही नहीं, अलग-अलग तरह की विचारधाराएँ भी समाती जा रही हैं। कभी यह कहकर गीत और नवगीत को कमज़ोर प्रमाणित करने का प्रयास किया गया था कि गीत में समय के संत्रास, विसंगतियों और चुनौतियों को अभिव्यक्त करने की सामर्थ्य नहीं है। ऐसा कहने वाले लोग भी अंततः चुक गये। उनकी कविता, जो मुक्त-छंद बनकर चली थी, छंद-मुक्त हुई और अंत में गद्य-कविता बनकर रह गयी। गीत अपने प्रवाह में समय को अभिव्यक्त करने में निरंतर लगा रहा। समय के साथ उसने स्वयं को सशक्त किया। भाषा, शिल्प और और संवेदना का विस्तार किया। समयानुकूल कथ्य को गीतात्मक कविता की बुनावट में सहज और संप्रेष्य बनाया।
कविता में छायावाद के बाद का दौर बहुत तीव्र गति से चलने वाला दौर था। इस समय में कई वादों-विचारों के साथ विचारधाराओं के नाम पर आत्मस्थापना की मठाधीशी प्रवृत्ति का ज़ोर देखने को मिलता है। इसी दौर में प्रगतिवाद, प्रयोगवाद, नयी कविता, मुक्त छंद कविता, अकविता, युयुत्सावादी कविता, बीट कविता और न जाने कितने कितने नाम आये-गये। इनमें से कोई भी लंबे समय तक नहीं चल सका। चीज़ें और नाम लगातार बदल रहे थे। किंतु, इस समय में जो एक चीज़ नहीं बदल पा रही थी, वह थी मुक्त छंद कविता की संरचना। यह कहना भी ठीक नहीं होगा कि बदलाव नहीं हो रहा था। बदलाव तो हो रहा था, लेकिन कुछ ठीक नहीं था। मुक्त छंद की, जिस काव्यधारा का उद्भव निराला से हुआ, उसे लोगों ने कुछ भी और कैसे भी कहने की सुविधा मान लिया और उसके भीतर की विराट लय और संवेदना को छोड़ते चले गये। फलस्वरूप मुक्त छंद की काव्यधारा अपने शिल्प में छंद मुक्त होते-होते ठेठ गद्य कविता बन गयी। यहाँ कविता कितनी बच पा रही थी, इस ओर अधिक ध्यान नहीं था। उल्लेखनीय है कि इसी धारा के नाम ‘कविता’ शब्द का पेटेंट करा लिया गया। ऐसा घोषित कर दिया गया कि आप गद्य कविता के सिवा किसी और प्रारूप की कविता को कविता नहीं कह सकते। इस बात का प्रमाण यह है, कि इस कालखंड में कविता की आलोचना में अन्य काव्य रूपों की चर्चा नहीं की गयी। उनकी चर्चा तो दूर, उनका नाम तक नहीं लिया गया।
नवगीत को समर्पित नवगीत-कवयित्री पूर्णिमा वर्मन के संयोजन में आयोजित होने वाले ऐतिहासिक नवगीत-महोत्सव 2019 (अभिव्यक्ति कला केंद्र, लखनऊ) के एक सत्र में बोलते हुए वरिष्ठ नवगीत-कवि गणेश गंभीर ने कहा कि पिछली सदी के छठवें दशक के अंतिम वर्षों में जिस ‘नवगीत कविता’ की घोषणा हुई, वह दरअसल क्या है? इस पर विचार करना चाहिए और नयी पीढ़ी को बताना चाहिए कि नवगीत क्या है? इस प्रश्न का जवाब नयी पीढ़ी के लिए हमें देना ही चाहिए। ऐसा नहीं है कि इस प्रश्न पर कभी विचार ही नहीं किया गया है। इस प्रश्न पर लगभग सभी विद्वान नवगीतकारों ने विचार किया है। अपने समय में लिखे जा रहे नवगीतों का विश्लेषण कर उनकी प्रवृत्ति, उनकी संरचना व भाषा के आधार पर इस प्रश्न का उत्तर भी दिया है। नवगीत को आधार देने वालों में डॉक्टर शंभुनाथ सिंह से लेकर देवेंद्र शर्मा ‘इंद्र’, डॉ. राजेंद्र गौतम, नचिकेता, कुमार रविंद्र के साथ कई-कई विद्वानों ने इस प्रश्न का उत्तर दिया है। तो प्रश्न यह उठता है, कि गणेश गम्भीर जी को नवगीत की 60 वर्ष की यात्रा के बाद भी यह क्यों कहना पड़ा कि आख़िर नवगीत क्या है? यह प्रश्न महत्वपूर्ण है और इसी में कविता और विशेषतः नवगीत कविता के संदर्भ में समय की अविरामता का भी उत्तर है।
जैसा कि हम ऊपर भी कह चुके हैं, कि ‘नवगीत’ नाम से संज्ञायित इस काव्य विधा में पारंपरिक छंद ही नहीं, अलग-अलग विचारधाराएं भी समाती जा रही हैं। यह भी कह सकते हैं कि नवगीत ने प्रयोगधर्मी छंदों के साथ पारंपरिक और सनातनी छंदों में स्वयं को प्रमाणित करने के साथ हर तरह की प्रतिरोधी विचारधारा को भी स्वर दिया है। वास्तव में नवगीत ने अपने नाम को हर क़दम पर प्रमाणित किया है। इसका प्रमाण सन् 1960 से लेकर अब तक के हर कालखंड में रचे गए नवगीतों में देखा जा सकता है। नवगीत की प्रत्येक पीढ़ी के रचनाकारों ने अपने समय के संघर्ष, अपने समय की संवेदनाओं और उस समय में व्याप्त बहुरूपी विसंगतियों को अभिव्यक्त करने के लिए नवगीत के शिल्प में नये-नये आयाम पैदा किये। नवगीत की भाषा को लोक के भीतर की भाषा बनाये रखने का यत्न किया। सबसे अधिक महत्वपूर्ण बात यह रही कि नवगीत अपने समय को उसकी वास्तविकता में अभिव्यक्त कर पाने के लिए प्रयत्नशील रहा और इसके लिए नये-नये तेवर, स्वर और औज़ार अपनाकर स्वयं को समृद्ध करता रहा। नवगीत की पूरी यात्रा में जो एक बात हर दौर और हर समय में व्याप्त रही, वह थी अभारतीयता, असांस्कृतिकता व पाखंड के प्रति नवगीत का प्रतिरोध। यह प्रतिरोध हम नवगीत के एकदम आरंभिक व महत्वपूर्ण कवि डॉ. शिव बहादुर सिंह भदौरिया में पाते हैं, तो गुलाब सिंह, महेश अनघ, नचिकेता, राम सेंगर, अनूप अशेष, ओमप्रकाश सिंह, मयंक श्रीवास्तव से होते हुए डॉ. पंकज ‘परिमल’, जगदीश पंकज, राजा अवस्थी, डॉ अवनीश सिंह, अवनीश त्रिपाठी, बृजनाथ श्रीवास्तव, मनोज जैन ‘मधुर’, अनामिका सिंह, चित्रांश वाघमारे, रविशंकर मिश्र, योगेंद्र दत्त मौर्य से लेकर शुभम श्रीवास्तव ‘ओम’ तक में अबाध रूप से मिलता है। इससे एक बात स्पष्ट होती है कि जिस भारतीय ढंग की आधुनिकता की बात डॉ. शंभुनाथ करते हैं, वही नवगीत में अभारतीयता, असांस्कृतिकता व पाखंड के प्रतिरोध के रूप में आती है और यह नवगीत की प्रमुख पहचान भी है।
अब नवगीत की नित-नव्यता पर बात करते हैं। वास्तव में यह नित-नव्यता ही वह कारण है, जिसके कारण नवगीत को बार-बार परिभाषित करने की ज़रूरत महसूस की जाती है। इस नित-नव्यता का मूल कारण है- गीत की जीवनी-शक्ति, उसकी जीवटता, उसकी जिजीविषा, उसकी प्रतिरोध क्षमता। आरंभ में गीत मनुष्य की आदिम वृत्तियों की आड़ में पनपती मानसिक कुत्साओं के प्रतिरोध को स्वर देता था। फलस्वरूप आध्यात्मिक व भक्ति-प्रद गीत रचनाएं अस्तित्व में आयीं। समय के बदलाव के साथ मनुष्य का जीवन, यह संसार कई-कई जटिलताओं में उलझता गया। विषमता, अन्याय, भूख, बेरोज़गारी, संवेदनहीनता का प्रसार होता गया। गीत ने इन सबके प्रतिरोध को भी स्वर दिया और इसी क्रम में वह नवगीत भी हुआ। अपने समय में व्याप्त कुत्साओं, कुप्रवृत्तियों, विसंगतियों, मनुष्य-मनुष्य के बीच बढ़ती असमानता, दूरी को सभी नवगीत कवियों ने अपनी कविताओं का विषय बनाया। इन सब बातों को अपने काव्य का कथ्य बनाने के क्रम में भाषा के स्तर पर भी प्रयोग हुए। नवगीत की भाषा लोकोन्मुखी भी हुई। नवगीत में सर्वाधिक प्रयोग शिल्प को लेकर हुए। नवगीत का शिल्प एक शोध का विषय बन चुका है, क्योंकि किसी भी काव्य विधा का शिल्प ही है, जो कथ्य को पैनापन, प्रभावकारिता व यथार्थता देता है। नवनीत ने अपने भीतर कई-कई तरह के पारंपरिक छंदों को भी आधार बनाकर स्वयं को बनाया है, किंतु उसकी मूल भावना सदैव कथ्य के साथ न्याय कर पाने की रही और यही कविता की मूल शर्त होनी चाहिए। अपनी विकास यात्रा में नवजीत ने एक कहन विकसित कर ली है, जिससे कविता का प्रभाव व उसकी उद्धरणशीलता में भी वृद्धि हुई है।
नवनीत के आरंभिक विषयों में लोक संपृक्ति, रूप-सौंदर्य व प्रकृति-सौंदर्य, लोक की दिनचर्या और उस दिनचर्या में प्रतिबिंबित होते उसके उल्लास, उत्सव, पीड़ा अधिक थी। कुछ बाद में प्रणय-भावना और मिथकीय प्रयोगों का भी इसमें प्रवेश होता है। प्रणय-भावना, रूप-सौंदर्य गांव से शहर की ओर मनुष्य के प्रवाह में ग्राम रति का उमग आना, शहरी अकेलापन आदि ऐसी स्थितियां निर्मित हुईं कि नवगीत में यह अधिक ही अभिव्यक्ति पाने लगीं। लेकिन, नवगीत की हर नयी पीढ़ी, हर नया लिखने वाला उपरोक्त सभी विषयों को नकारे बिना अपने युगबोध से जुड़ने को लालायित दिखता है और यही कारण है कि नवगीत कविता में समकालीनता अधिक स्पष्ट होती गयी, किन्तु नवगीत ने अपनी कहन में घोषित रूप से बिंबधर्मिता और व्यंजना की प्रधानता को अपनी प्रमुख विशेषता बनाया और यह विशेषता आज भी बनी हुई है।
पिछली सदी के सातवें दशक से लेकर अब तक के नवगीतों को देखें, तो हमें नवगीत के अनेक रूप दिखेंगे, किन्तु लोकचेतना, लोकसंपृक्ति छंद के स्तर पर प्रयोगशीलता, बिंबधर्मिता, व्यंजना में बात करने की प्रवृत्ति हर युग में रही है। लोकसंपृक्ति, भाषा, बिंब, जीवन-स्थिति, उत्सव आदि सभी स्तरों पर मिलती है। नवगीत के लोक में केवल ग्राम्य-जीवन या ग्राम का जन ही नहीं है, बल्कि नवगीत के भीतर आज शहरी संस्कृति और एक हाईटेक युग में जीता हुआ मनुष्य भी शामिल है। इस तरह हमें कहना चाहिए कि यही नवगीत कविता की पहचान भी है।
संक्षेप में एक अबाध लययुक्त ऐसी छंदाश्रयी कविता, जिसमें व्यापक लोकसंपृक्ति, लय, संवेदना, सामाजिक सरोकार, मानवीय सरोकार, टटकी भाषा, बिंबधर्मिता, अर्थगर्भी व्यंजना, जीवन-स्थिति व समकालीन युगबोध की अभिव्यक्ति हो, नवगीत कविता कही जाएगी।

राजा अवस्थी
सीएम राइज़ माॅडल उच्चतर माध्यमिक विद्यालय कटनी (म.प्र.) में अध्यापन के साथ कविता की विभिन्न विधाओं जैसे नवगीत, दोहा आदि के साथ कहानी, निबंध, आलोचना लेखन में सक्रिय। अब तक नवगीत कविता के दो संग्रह प्रकाशित। साहित्य अकादमी के द्वारा प्रकाशित 'समकालीन नवगीत संचयन' के साथ सभी महत्वपूर्ण और उल्लेखनीय समवेत नवगीत संकलनों में नवगीत संकलित। पत्र-पत्रिकाओं में गीत-नवगीत, दोहे, कहानी, समीक्षा प्रकाशित। आकाशवाणी केंद्र जबलपुर और दूरदर्शन केन्द्र भोपाल से कविताओं का प्रसारण।
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