nida fazli, निदा फ़ाज़ली
पाक्षिक ब्लॉग आशीष दशोत्तर की कलम से....

किताबी और दुनियावी इल्म के बीच शाइरी

            इल्म और शाइरी का क्या तअल्लुक है? इसको लेकर सबके अपने नज़रिये हो सकते हैं। एक नज़रिया यह कहता है कि इल्म शाइरी में इज़ाफ़ा करता है। इल्म शाइरी को समृद्ध करता है। दूसरा नज़रिया कहता है, इल्म शाइरी के लिए ज़रूरी नहीं लेकिन इल्म भी हो तो शाइरी में चार चांद लग जाते हैं। इसी बात को सदियों पहले कबीर ने बहुत ख़ूबसूरती से कहा है-

पोथी पढ़-पढ़ जग मुआ, पंडित भया न कोय
ढाई आखर प्रेम का पढ़े सो पंडित होय।

प्रेम के ढाई अक्षर न सिर्फ़ इल्मी ज़िन्दगी को बल्कि ज़िन्दगी के हर लम्हे को हसीन बना सकते हैं। ये ढाई अक्षर जिसकी ज़िन्दगी में शामिल होते हैं, उसके पास ऐसी दौलत होती है जो किसी भी दौलत से बहुत बड़ी होती है। यही कारण है जिनके पास किताबी इल्म नहीं होता, वे दुनियावी इल्म से अपनी शाइरी को अंजाम देते हैं। दुनियावी इल्म, जो हर क़दम पर इंसान को एक नया तजुर्बा देता है। एक नयी सीख देता है, और यह सीख एक संवेदनशील इंसान को बेहतरीन इबारत लिखने के लिए प्रेरित करती है। कबीर की ही बात को बशीर बद्र के अंदाज़ में कुछ इस तरह समझें-

काग़ज़ में दब के मर गए कीड़े किताब के
दीवाना बे-पढ़े-लिखे मशहूर हो गया।

यहां पर पढ़े-लिखे इंसान को अपने आसपास की दुनिया से इतना इल्म हासिल हो जाता है कि वह अपने तजुर्बे की ज़मीन पर एक से बढ़कर एक मिसरे गढ़ता है। ग़ज़ल उसी अनुभव का रंग है। इंसान जब तक अपने पैरों पर चलते हुए ठोकर नहीं खाता, वह ठोकर लगने के दर्द को महसूस नहीं कर सकता है। एक अच्छी शाइरी के लिए अपनी आंखों को खुला रखना ज़रूरी है। अपने पास से गुज़रती हवाओं की आवाज़ को सुनना ज़रूरी है। अपने इर्द-गिर्द उड़ती तितलियों से बतियाने की ज़रूरत है। अपने चारों ओर फैली ख़ुशबू को महसूस करने की ज़रूरत है। सिर्फ़ किताबों को नज़रों के आगे जमाये रखने से दुनिया के रंग से वाक़िफ नहीं हुआ जा सकता। निदा फ़ाज़ली तो कहते भी हैं-

धूप में निकलो घटाओं में नहा कर देखो
ज़िन्दगी क्या है किताबों को हटा कर देखो

एक शाइर को हर उस लम्हे से प्यार करना होता है, जो उसके क़रीब है। उस दुःख दर्द से वाबस्ता होना पड़ता है, जो उसके आसपास दिख रहा है। उस पीड़ा को महसूस करना होता है जो किसी को परेशान कर रही है। किसी से प्यार करना होता है। इसके बग़ैर शाइरी नहीं हो सकती। अकबर इलाहाबादी भी इस बात को बहुत ख़ूबसूरत अंदाज़ में कहते हैं-

इश्क को दिल में जगह दे अकबर
इल्म से शाइरी नहीं आती

दरअसल एक शाइर को अपने आप से बात करना होती है। अपने भीतर के इंसान को ज़िंदा रखना पड़ता है। किताबी ज्ञान डिग्रियां तो दिलाता है मगर भीतर के इंसान को जज़्बात ही ज़िंदा रखते हैं। अपने आप को उस आईने में बार-बार देखने की ज़रूरत होती है, जो आपको आगे बढ़ने, दुनिया को संवेदना की नज़र से देखने का सलीका देता है। तभी तो शाइर नुदरत रतलामी इतनी गहरी बात कहते हैं-

रखता हूं पांव जब भी लफ़्ज़ों की अंजुमन में
ख़ुद को मैं देखता हूं आइना-ए-सुख़न में

इस आईने में देखने का शऊर जिसे हासिल होता है, वह किताबी इल्म से भले ही दूर हो लेकिन दुनियावी इल्म के क़रीब होता है। दुनियावी इल्म ही उसे प्यार और नफ़रत में फ़र्क करना सिखाता है। ख़ुशबू की हिफाज़त, रोशनी की रक्षा करने का हुनर शाइर दुनियावी इल्म के ज़रिये ही दे पाता है।

आशीष दशोत्तर

आशीष दशोत्तर

ख़ुद को तालिबे-इल्म कहते हैं। ये भी कहते हैं कि अभी लफ़्ज़ों को सलीक़े से रखने, संवारने और समझने की कोशिश में मुब्तला हैं और अपने अग्रजों को पढ़ने की कोशिश में कहीं कुछ लिखना भी जारी है। आशीष दशोत्तर पत्र पत्रिकाओं में लगातार छपते हैं और आपकी क़रीब आधा दर्जन पुस्तकें प्रकाशित हैं।

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