द्विजेंद्र द्विज, dwijendra dwij

इंद्रधनुष-3 : द्विजेंद्र द्विज

 

(ग़ज़लिया शायरी में जो ‘हिंदी ग़ज़ल’ धारा बह रही है, उसके प्रमुख समकालीन रचनाकारों में द्विजेंद्र द्विज का नाम शामिल है। हिंदी के साथ ही द्विज ख़ास तौर से हिमाचली ग़ज़लें भी कह रहे हैं और इनका एक संग्रह भी ला चुके हैं। हिंदी के रचनाकारों की ग़ज़लों के जो प्रमुख संकलन छपे हैं, ऐसे दर्जन भर से ​ज़ियादा में भी​ द्विज की ग़ज़लें शामिल हैं। द्विज की ग़ज़लों में पहाड़ के कई पहलू झलकते हैं। तेवर समकालीन कविता का सा दिखता है और कहन परंपरागत न होकर समकालीन, बयानिया रंग की नज़र आती है। द्विज की ग़ज़लों का मूल्यांकन अभी शेष है लेकिन अपने हिस्से का सुर वह पैदा कर पा रहे हैं। इंद्रधनुष आब-ओ-हवा काव्य खंड की एक सीरीज़ है, जिसमें हम एक शायर की सात रचनाओं को यहां प्रस्तुत कर रहे हैं। तीसरी कड़ी में एक बार फिर ग़ज़लें… प्रस्तुति – ग़ज़ाला तबस्सुम)

द्विजेंद्र द्विज, dwijendra dwij

द्विजेंद्र द्विज की सात ग़ज़लें

हज़ारों सदियों का सारांश कुछ कथाएँ हैं
और इन कथाओं का सारांश प्रार्थनाएँ हैं

इसीलिए यहाँ ऊबी सब आस्थाएँ हैं
पलों की बातें हैं पहरों की भूमिकाएँ हैं

यही है हाल तो किस काम की है आज़ादी
दिलों में डर हैं, हवाओं में वर्जनाएँ हैं

दिखे हैं ख़ून के छींटे बरसती बूँदों में
ख़याल ज़ख़्मी हैं घायल जो कल्पनाएँ हैं

जहाँ से लौट के आने का रास्ता ही नहीं
गुमां की राह में ऐसी कई गुफाएँ हैं

बस आसमान सुने तो सुने इन्हें यारो
पहाड़ की भी पहाड़ों-सी ही व्यथाएँ हैं

हसीन ख़्वाब मरेंगे नहीं, यक़ीं जानो
अभी जवान उमंगों की तूलिकाएँ हैं

कोई कहे कभी धरती पे भी बरस जाएँ
गगन पे किसलिए ये साँवली घटाएँ हैं

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अँधेरे चंद लोगों का अगर मक़सद नहीं होते
यहाँ के लोग अपने आप में सरहद नहीं होते

न भूलो तुमने ये ऊँचाइयाँ भी हमसे छीनी हैं
हमारा क़द नहीं लेते तो आदमक़द नहीं होते

फ़रेबों की कहानी है तुम्हारे मापदण्डों में
वगरना हर जगह बौने कभी अंगद नहीं होते

तुम्हारी यह इमारत रोक पाएगी हमें कब तक
वहाँ भी तो बसेरे हैं जहाँ गुम्बद नहीं होते

चले हैं घर से तो फिर धूप से भी जूझना होगा
सफ़र में हर जगह सुन्दर-घने बरगद नहीं होते

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जो लड़ें जीवन की सब संभावनाओं के ख़िलाफ़
हम हमेशा ही रहे उन भूमिकाओं के ख़िलाफ़

ज़ख़्म तू अपने दिखाएगा भला किसको यहाँ
यह सदी पत्थर-सी है संवेदनाओं के ख़िलाफ़

ठीक भी होता नहीं मर भी नहीं पाता मरीज़
कीजिए कुछ तो दवा ऐसी दवाओं के ख़िलाफ़

जो अमावस को उकेरें चाँद की तस्वीर में
थामते हैं हम क़लम उन तूलिकाओं के ख़िलाफ़

रक्तरंजित सुर्ख़ियाँ या मातमी ख़ामोशियाँ
सब गवाही दे रही हैं कुछ ख़ुदाओं के ख़िलाफ़

आख़िरी पत्ते ने बेशक चूम ली आख़िर ज़मीन
पर लड़ा वो शान से पागल हवाओं के ख़िलाफ़

‘एक दिन तो मैं उड़ा ले जाऊँगी आख़िर तुम्हें’
ख़ुद हवा पैग़ाम थी काली घटाओं के ख़िलाफ़

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मेरे किरदार पे छाई रही मिट्टी मेरी
चाक पे धूम मचाती रही मिट्टी मेरी

कितने सपनों के उजाले थे मेरे कण-कण में
आग में तप के सुनहरी रही मिट्टी मेरी

इसकी ख़ुशबू से हर इक रास्ता उपवन-सा लगा
फूल बन-बन के महकती रही मिट्टी मेरी

मेरे होने का सबब मुझको ही मालूम न था
ग़ैर के बुत में धड़कती रही मिट्टी मेरी

ऐसी होती है तमन्ना के सराबों की चमक
दश्त-ओ-सहरा में भटकती रही मिट्टी मेरी

लोकनृत्यों की मधुर तान की सानी बनकर
मेरे पैरों में थिरकती रही मिट्टी मेरी

कुछ तो बाक़ी था मेरी मिट्टी से रिश्ता मेरा
मेरी मिट्टी को तरसती रही मिट्टी मेरी

दूर परदेस के सहरा के अँधेरों में भी
कहकशां बन के चमकती रही मिट्टी मेरी

सिर्फ़ रोज़ी के लिए दूर वतन से अपने
दर-ब-दर साथ भटकती रही मिट्टी मेरी

मैं जहाँ भी था कभी साथ न छोड़ा उसने
ज़ेह्न में ऐसे महकती रही मिट्टी मेरी

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ज़ेह्न-ओ-दिल में ये कोई डर नहीं रहने देता
शोर अन्दर का हमें घर नहीं रहने देता

कोई ख़ुद्दार बचा ले तो बचा ले वरना
पेट काँधों पे कोई सर नहीं रहने देता

आसमां तो वो दिखाता है परिंदों को नये
हाँ, मगर उनपे कोई पर नहीं रहने देता

ख़ुश्क आँखों में उमड़ आता है बादल बनकर
दर्द एहसास को बंजर नहीं रहने देता

एक पोरस भी तो रहता है हमारे अन्दर
जो सिकन्दर को सिकन्दर नहीं रहने देता

उनमें इक रेत के दरिया-सा ठहर जाता है
ख़ौफ़ आँखों में समुन्दर नहीं रहने देता

हादिसों का ये धुँधलका मेरी आँखों में ‘द्विज’
ख़ूबसूरत कोई मंज़र नहीं रहने देता

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छलनी क़दम-क़दम पे है सीना पहाड़ का
दूभर किया है किसने ये जीना पहाड़ का

जिस तरह चढ़ रहे हैं वो ज़ीना पहाड़ का
लगता है बैठ जाएगा सीना पहाड़ का

घाटी की प्यास और ये मीना पहाड़ का
महँगा पड़े न जाम ये पीना पहाड़ का

जो देखना है तुझको भी जीना पहाड़ का
सर्दी में आ के काट महीना पहाड़ का

ये ग़ार-ग़ार सीना ये रिसता हुआ वजूद
दामन किया है किसने ये झीना पहाड़ का

सबको पता है अब नये बनिये की आँख में
चुभता है किस क़दर ये दफ़ीना पहाड़ का

इमदाद हो कोई कि इशारा वतन का हो
आता है काम ख़ून-पसीना पहाड़ का

साज़िश कुछ इस तरह हुई यारो पहाड़ से
सड़कों से आ के सट गया सीना पहाड़ का

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फ़ाइलों से निकल न पाये हम
ख़ुद को दफ़्तर में छोड़ आये हम

फ़स्ल बनकर तो लहलहाये हम
आ के मंडी में छटपटाये हम

ख़ून रिसता है हाथ से तो क्या
देखो पत्थर निचोड़ लाये हम

ख़ून सबका है एक, भूल गये
और फिर ख़ून में नहाये हम

मुख्यधारा की बात करते हो!
हाशियों पर भी आ न पाये हम

उनके खेतों में हो गये मिट्टी
क़र्ज़ लेकिन चुका न पाये हम

दिल-नज़र में ये रौशनी क्यूँ है
पूछ मत कैसे जगमगाये हम

इक ज़ख़ीरा हैं अज़्म-ओ-हिम्मत का
ग़म से लुटते नहीं लुटाये हम

‘द्विज’ पहाड़ों की चोटियों के साथ
बर्फ़ और धूप में नहाये हम

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