
- October 30, 2025
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पाक्षिक ब्लॉग नमिता सिंह की कलम से....
मैं कौन हूँ! पुराना सवाल नये ढंग से पूछता 'काकुलम'
भरत प्रसाद का उपन्यास ‘काकुलम’ पिछले वर्ष प्रकाशित हुआ। आश्चर्य हुआ और ख़ुशी भी। भरत प्रसाद एक जाने-माने कवि हैं। 2014 में के.पी.सिंह मेमोरियल ट्रस्ट द्वारा उन्हें मलखान सिंह सिसौदिया कविता सम्मान से नवाज़ा गया था। यह सम्मान प्रतिवर्ष जनवादी-प्रगतिशील मूल्यों के पक्षधर किसी युवा कवि को प्रदान किया जाता है और यह सिलसिला पिछले अठारह-उन्नीस सालों अनवरत है। भरत प्रसाद आलोचक और कुशल संपादक भी हैं और उपन्यासकार के रूप में उन्हें पढ़ना अच्छा लगा।
‘काकुलम’ उपन्यास में, अगर मैं कहूँ कि कथावस्तु सीधी-सपाट है और इसमें कोई बड़ा घटनाक्रम नहीं है, तो ग़लत नहीं होगा। उपन्यास का मुख्य पात्र धवल है और उसके बचपन से लेकर युवा होने तक का सफ़र इसमें है। लेकिन कथा बाहरी परिवेश में जितना चलती है, उससे कहीं अधिक गहराई से और तीव्र अनुभूतियों के साथ मानस की अंतर्यात्रा के रूप में अंकित होती है। इलाहाबाद के पास बसे एक छोटे से गांव बन्नीपुर में बचपन की यादों और परिवेश के बीच एक रचा-बसा संसार है, जहाँ से उसकी यात्रा शुरू होती है। पिता अचल गाँव के प्राइमरी स्कूल में अध्यापक हैं। गाँव की स्कूली शिक्षा पूरी कर घर बैठी बहन वीणा है, छोटा भाई पुलक और परिवार को समर्पित माँ आस्था है।
हाईस्कूल में ‘फर्स्ट’ पास हुआ है धवल। अगला पड़ाव कई किलोमीटर दूर देशबंधु इंटर कॉलेज है। ‘गाँव की गोद में बसे अपने घर से ईंटदार सड़क तक आने के लिए आधे किलोमीटर का मार्च पास्ट’, फिर कभी गुज़रते ट्रक, कभी ट्रैक्टर और कभी साइकिल सवार मित्रों की कृपा के आकांक्षी धवल को काॅलेज तक की यात्रा पैदल भी करनी पड़ती है। फिर एक दिन पिता उसे भी साइकिल दिला देते हैं। काॅलेज में युवा मन की उड़ान के साथ नये सहपाठी तथा लड़कियों का साथ। चढ़ती उम्र, भावनाओं का नया रंग, नयी चाहत। भूमिका, सपना, धनवा और फिर नयनी। गाँव से बाहर निकल कर काॅलेज में पढ़ने वाली लड़कियों के भय और आकांक्षाएँ। उस समय अपनी सहपाठिन नयनी के हाथ पर हाथ रख देना और रास्ते में साथ-साथ चलना ही मानो बड़ी क्रांति है। शुरूआती भटकाव के बाद फिर पढ़ाई और इंटर में प्रथम श्रेणी के लिए सफल प्रयास।

दूसरा पड़ाव इलाहाबाद विश्वविद्यालय। धवल यहाँ की राजनीति के रंग रूप और तूफ़ानी माहौल से परिचित होता है। यहाँ छात्र-राजनीति जाति आधारित है, दबंगई आधारित है और देश की राजनीति के महत्वाकांक्षी छात्रों का ट्रेनिंग सेंटर है। शहर में कमरा लेकर रहने वाले धवल की व्यस्त दिनचर्या, विश्वविद्यालय का वातावरण, पढ़ाई, कैंपस की गतिविधियाँ, कक्षा के छात्र और छात्राओं का सान्निध्य और साथ ही कोमल अनुभूतियों का अद्भुत संचरण। यहाँ भी सहपाठिनें मन मस्तिष्क में छाने लगती हैं और अंततः हाॅस्टल में रहने वाली संध्या संग निकटता बढ़ती है। एक शाम संध्या उसके कमरे में आती है और धवल उसके साथ प्रेम के आवेग में बह जाता है, जिसकी परिणति अंत में ग्लानि और अपराध बोध में होती है। उसके बाद वह स्वयम् को समेट कर पढ़ाई पर केंद्रित होता है।
धवल का अगला पड़ाव देश की आधुनिक, वैचारिक संपदायुक्त संस्था जवाहरलाल नेहरू यूनिवर्सिटी है। विशेषरूप से वामपंथी-जनवादी विचारधारा केंद्रित इस अध्ययन संस्थान ने विश्वविख्यात विचारक और बुद्धिजीवी दिये हैं। धवल विभिन्न राजनीतिक दलों से संबद्ध उनके छात्र संगठनों के संपर्क में आता है और उनके वैचारिक दृष्टिकोण तथा सरोकारों से प्रभावित भी होता है। लेकिन उसके अनेक सवाल भी हैं और वैचारिक मंथन से गुज़रते हुए वह किसी निश्चित मुक़ाम पर नहीं पहुँच पाता। उसका आत्ममंथन निरंतर उसे बेचैन करता है।स्वयम् के निर्मित एक राजनीतिक-सामाजिक दृष्टिकोण के साथ वैचारिक यात्रा से गुज़रता हुआ, भविष्य की तलाश में वह अब एक परिपक्व युवा है। उसे व्यापक समाज कल्याण के लिए मार्क्सवाद सुसंगत लगता है लेकिन वह गाँधी के जीवन और गांधीवाद से भी उतना ही प्रभावित है। अपनी सारनाथ यात्रा के दौरान वह बुद्ध के तेज और दर्शन से मानो सम्मोहित हो गया हो। भगतसिंह का जीवन-दर्शन और नास्तिकवाद, सुभाषचंद्र बोस का संघर्षपूर्ण जीवन, ईसा का मानव मात्र से प्रेम और जैन धर्म के महावीर स्वामी भी उसे आकर्षित करते हैं।
यह उपन्यास धवल के रूप में लेखक की स्वयम् की खोज और विचार यात्रा का लेखा जोखा है। समय के साथ अपने अनुभव और वैचारिक द्वंद्व को समेटती हुई जीवन यात्रा है।इसीलिए घटनाओं का उतार-चढ़ाव नहीं है और लेखक पूरी ईमानदारी से अपनी वैचारिक अंतर्यात्रा और संवेदना को पाठकों के साथ साझा करता है। उपन्यास में प्रकृति के विविध रूप और वातावरण की चित्रात्मकता भी कथा का आधार बनते हैं। गाँव की भीड़ भाड़ वाली सड़क, बास मारता बुढ़वा तालाब, सीमा पर सबको देखता, आश्वस्त करता बुज़ुर्ग बरगद, गीत गाते लहलहाते खेत…ऐसे अनगिनत संवाद करते दृश्य हैं। यह उपन्यास एक कवि के द्वारा रचा गया है, तो भाषा के ठेठ देसीपन के साथ कविता तो बहनी ही है।
धवल की मानस यात्रा लगातार जारी है इसलिए यह उपन्यास भी समाप्त नहीं होता। हमें वह एक गीत गुनगुनाता दिखायी देता है। एक अच्छे, अलग तरह के उपन्यास के लिए भरत प्रसाद को बधाई।

नमिता सिंह
लखनऊ में पली बढ़ी।साहित्य, समाज और राजनीति की सोच यहीं से शुरू हुई तो विस्तार मिला अलीगढ़ जो जीवन की कर्मभूमि बनी।पी एच डी की थीसिस रसायन शास्त्र को समर्पित हुई तो आठ कहानी संग्रह ,दो उपन्यास के अलावा एक समीक्षा-आलोचना,एक साक्षात्कार संग्रह और एक स्त्री विमर्श की पुस्तक 'स्त्री-प्रश्न '।तीन संपादित पुस्तकें।पिछले वर्ष संस्मरणों की पुस्तक 'समय शिला पर'।कुछ हिन्दी साहित्य के शोध कर्ताओं को मेरे कथा साहित्य में कुछ ठीक लगा तो तीन पुस्तकें रचनाकर्म पर भीहैं।'फ़सादात की लायानियत -नमिता सिंह की कहानियाँ'-उर्दू में अनुवादित संग्रह। अंग्रेज़ी सहित अनेक भारतीय भाषाओं में कहानियों के अनुवाद। 'कर्फ्यू 'कहानी पर दूरदर्शन द्वारा टेलीफिल्म।
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